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________________ ज)))) ))))))))) ))))))) ))))))) ))) विवेचन : प्रस्तुत सूत्र में उन हिंसक जीवों के दुःख का वर्णन किया गया है जो पहले नरक की यातनाएँ भोगकर आदि में तत्पश्चात् पापकर्मों का फल भोगना शेष रह जाने के कारण तिर्यंच पंचेन्द्रिय पर्याय में, फिर विकलेन्द्रिय अवस्था में और फिर एकेन्द्रिय अवस्था में उत्पन्न होते हैं। जब वे पृथ्वीकाय में जन्म लेते हैं तो उन्हें कुदाल हल फावड़ा आदि द्वारा विदारण किये जाने का कष्ट भोगना पड़ता है। जलकाय में जन्म लेते हैं तो उनका मंथन विलोडन आदि किया जाता है। तेजस्काय और वायुकाय में स्वकाय शस्त्रों से विविध प्रकार से घात किया जाता है। वनस्पतिकाय में उनका छेदन-भेदन किया जाता है। इतना ही नहीं वनस्पतिकाय के जीवों को तो वनस्पतिकाय में ही बारम्बार जन्म-मरण करते-करते अनन्त काल तक इस प्रकार की वेदनाएँ भोगनी पड़ती हैं। ये समस्त दुःख हिंसा करके प्रसन्न होने वाले प्राणियों को भोगने पड़ते हैं। Elaboration—In the present aphorism, the sufferings of those violent living beings have been narrated who first pass through sufferings in the hell. Thereafter due to the fact that still some fruit of their bad Karmas exist, they take birth in five-sensed animal life, then in four-sensed and so on, ultimately in one-sensed beings as earth-bodied living beings. When they take birth in plant-bodied living beings they have to take birth again and again for infinite period. Thus they suffer for an infinite period. All these sufferings are borne by those living beings who feel happy and elated after doing violent activities. मनुष्यभव के दुःख SUFFERINGS OF HUMAN LIFE ४२. जे वि य इह माणुसत्तणं आगया कहिं वि णरगा उव्वट्टिया अधण्णा ते वि य दीसंति पायसो विकयविगलरूवा खुज्जा वडभा य वामणा य बहिरा काणा कुंटा पंगुला विगला य मूका य मम्मणा य अंधयगा एगचक्खू विणिहयसंचिल्लया वाहिरोगपीलिय-अप्पाउय-सत्थबज्झबाला कुलक्षणउक्किण्णदेहा दुब्बल-कुसंघयण-कुप्पमाण-कुसंठिया कुरूवा किविणा य हीणा हीणसत्ता णिच्चं सोक्खपरिवज्जिया असुहदुक्खभागी णरगाओ इहं सावसेसकम्मा उव्वट्टिया समाणा। ४२. हिंसारूप घोर पापकर्म करने वाले जीव बड़ी कठिनाई से नरक से निकलकर किसी भाँति मनुष्य-पर्याय में उत्पन्न होते हैं, किन्तु जिनके पापकर्म भोगने से शेष रह जाते हैं, वे भाग्यहीन प्राणी विकृत एवं मूर्ख रूप-स्वरूप वाले, कुबड़े, टेढ़े-मेढ़े शरीर वाले, बौने, बहरे, काने, टूटे हाथ वाले, लँगड़े, अंगहीन, गूंगे, तुतलाने वाले या मरुमय उच्चारण करने वाले, अंधे, काने, दोनों खराब आँखों वाले या पिशाचग्रस्त, कुष्ठ आदि व्याधियों और ज्वर आदि रोगों से अथवा मानसिक एवं शारीरिक रोगों से पीड़ित, अल्प आयुष्य वाले, शस्त्र आदि द्वारा चोटें खाये हुए या मारे जाने योग्य, मूढ़ मूर्ख लक्षणों से भरपूर शरीर वाले, दुर्बल, अप्रशस्त संहनन, बहुत छोटे या बहुत मोटे, लम्बे कद के बेडौल अंगोपांगों वाले, खराब संस्थान-आकृति वाले, कुरूप, दीन, हीन, सत्त्वविहीन, सुख से सदा वंचित रहने वाले और अशुभ दुःखों के भाजन होते हैं। 42. After committing extremely violent deeds and thus collecting bad Karmas as a result of their sins, with great difficulty such living beings श्रु.१, प्रथम अध्ययन : हिंसा आश्रय (71) Sh.1, First Chapter: Violence Aasrava Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002907
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Varunmuni, Sanjay Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2008
Total Pages576
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_prashnavyakaran
File Size19 MB
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