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विवेचन : एकेन्द्रिय जीव मूलतः पाँच प्रकार के हैं - पृथ्वीकाय आदि। इनमें से प्रत्येक सूक्ष्म और बादर तथा 5
5 पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो-दो प्रकार के होते हैं। वनस्पतिकाय के इन दो भेदों में बादर वनस्पति के साधारणशरीरी और प्रत्येकशरीरी, ये दो भेद होते हैं। इनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
वनस्पति
अपर्याप्त
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सूक्ष्म
पर्याप्त
श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
फ्र
प्रत्येक
अपर्याप्त
पर्याप्त
अपर्याप्त
पर्याप्त
सूक्ष्म-सूक्ष्म नामकर्म के उदय से जिन स्थावर जीवों का शरीर अतीव सूक्ष्म हो, चर्मचक्षु से दिखाई न देता हो, सिर्फ अतिशयज्ञानी ही जिसे देख सकते हैं, ऐसे सूक्ष्म जीव सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं।
बादर - बादर नामकर्म के उदय से जिनका शरीर अपेक्षाकृत बादर हो । यद्यपि सूक्ष्म और बादर शब्द किसी एक ही अपेक्षा से नहीं हैं, एक की अपेक्षा जो सूक्ष्म है वह दूसरे की अपेक्षा बादर (स्थूल) हो सकता है और जो किसी की अपेक्षा बादर है वह अन्य की अपेक्षा सूक्ष्म भी हो सकता है। किन्तु यहाँ सूक्ष्म और बादर का भेद समझना चाहिए। नामकर्म के उदय पर ही यहाँ सूक्ष्म और बादर का भेद बताया है । कोई-कोई त्रसजीव भी अत्यन्त सूक्ष्म शरीर वाले होते हैं। उनका शरीर भी चक्षुगोचर नहीं होता। सम्मूर्च्छिम मनुष्यों का शरीर भी इतना
फ सूक्ष्म होता है कि दृष्टिगोचर नहीं हो सकता । फिर भी यहाँ गृहीत नहीं हैं, क्योंकि उनके सूक्ष्म नामकर्म का उदय
नहीं होता ।
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बादर
प्रत्येकशरीर - यह वनस्पतिकाय का भेद है। जिस जीव के एक शरीर का स्वामी एक ही हो, वह प्रत्येकशरीर या प्रत्येकशरीरी जीव कहलाता है।
साधारणशरीर- ऐसे जीव जो एक ही शरीर में, उसके स्वामी के रूप में एक साथ अनन्त हों। ऐसे जीव
5 निगोदकाय के जीव भी कहे जाते हैं। सूक्ष्म निगोद के जीव सम्पूर्ण लोकाकाश में व्याप्त हैं। बादर निगोद के जीव 'आदि वनस्पतियों में होते हैं। लोकाकाश में असंख्यात गोल हैं। एक-एक गोल में असंख्यात असंख्यात निगोद हैं और एक-एक निगोद में अनन्त - अनन्त जीव हैं।
कन्दमूल
साधारण
साधारणशरीर वाले जीवों के विषय में कहा गया है कि वे एक शरीर में अर्थात् एक ही शरीर के स्वामी के रूप में अनन्त जीव होते हैं। किन्तु उन सबका शरीर एक ही होता है। जब शरीर एक ही होता है तो उनका
5 आहार और श्वासोच्छ्वास आदि भी एक साथ ही होता है। किन्तु उनके तैजस् और कार्मण शरीर भिन्न-भिन्न ही होते हैं । ये साधारणशरीरी अथवा निगोदिया जीव अनन्त काल तक अर्थात् अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालपर्यन्त उसी पर्याय में लगातार जन्म-मरण की वेदना का अनुभव करते रहते हैं।
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Shri Prashna Vyakaran Sutra
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