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of taste including bitter and pungent and eight kinds of touch including hard and soft. This way the matter entity has been described here in the segment of matter.
अष्टादश पाप-पद ASHTADASH PAAP-PAD (SEGMENT OF EIGHTEEN DEMERITS)
९१. एगे पाणाइवाए जाव। ९२. [एगे मुसावाए। ९३. एगे अदिण्णादाणे। ९४. एगे मेहुणे।] ९५. एगे परिग्गहे। ९६. एगे कोहे जाव। ९७. [ एगे माणे। ९८. एगा माया। ९९. एगे लोभे।] १००. एगे पेजे। १०१. एगे दोसे जाव। १०२. [एगे कलहे। १०३. एगे अब्भक्खाणे। १०४. एगे पेसुण्णे।] १०५. एगे परपरिवाए। १०६. एगा अरतिरती। १०७. एगे मायामोसे। १०८. एगे मिच्छादसणसल्ले।
९१. प्राणातिपात (हिंसा) एक है। ९२. [मृषावाद (असत्यभाषण) एक है। ९३. अदत्तादान (चोरी) एक है। ९४. मैथुन (कुशील) एक है।] ९५. परिग्रह एक है। ९६. क्रोध (कषाय) एक है। ९७. [मान एक है। ९८. माया एक है। ९९. लोभ एक है।] १००. प्रेयस् (राग) एक है। १०१. द्वेष एक है। १०२. [कलह एक है। १०३. अभ्याख्यान (झूठा आरोप लगाना) एक है। १०४. पैशुन्य (चुगली करना) एक है।] १०५. पर-परिवाद (दूसरों की निन्दा) एक है। १०६. अरति-रति एक है। १०७. मायामृषा एक है। १०८. मिथ्यादर्शनशल्य एक है।
91. Pranatipat (harming or destruction of life) is one. 92. (Mrishavad (falsity) is one. 93. Adattadan (taking without being given; act of stealing) is one. 94. Maithun (indulgence in sexual activities) is one.) 95. Parigraha (act of possession of things). 96. Krodh (anger) is one. 97. [Maan (conceit) is one. 98. Maya (deceit) is one. 99. Lobha (greed) is one.] 100. Preyas or raag (attachment inspired by love) is one. 101. Dvesh (aversion inspired by suppressed anger and conceit) is one. 102. [Kalah (dispute) is one. 103. Abhyakhyan (blaming falsely) is one. 104. Paishunya (inculpating someone) is one.) 105. Paraparivad (slandering) is one. 106. Rati-arati (inclination towards indiscipline and that against discipline). 107. Mayamrisha (betraying or telling a lie deceptively) is one. 108. Mithyadarshan shalya (the thorn of wrong belief or unrighteousness) is one.
विवेचन-यद्यपि मृषा और माया को पृथक्-पृथक् पाप माना गया है, किन्तु सत्रहवें पाप का नाम 'मायामृषा' है, उसका अभिप्राय है माया-युक्त असत्य भाषण करना। अभयदेवसूरि ने इसका अर्थ बताया है-वेषान्तरकरणेन लोकप्रतारणं-वेष बदलकर दूसरों को ठगना। मानसिक उद्वेग रूप मनोविकार अरति और मोहासक्त आनन्दरूप चित्तवृत्ति रति है। (अष्टादश पाप का विस्तृत वर्णन आचार्य श्री आत्माराम जी म. कृत हिन्दी टीका, भाग १, पृष्ठ ५७-५८ देखें)
प्रथम स्थान
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First Sthaan
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