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________________ Я 5 श्रद्धावान्- विजय - पद SHRADDHAVAN-VIJAYA-PAD LELELELE LE LE LE LE LE LE LE LE LE F F 4 ***மிமிமிமிமிதமி*****மிமிமிமிமிமிமிமிமிமித ४०६. तओ ठाणा ववसियस्स हियाए जाव आणुगामियत्ताए भवंति, तं जहा (१) से णं मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए णिग्गंथे पावयणे णिस्संकिते णिक्कंखिते 5 जाव णो कलुससमावण्णे णिग्गंथं पावयणं सद्दहति पत्तियति रोएति । से परिस्सहे अभिजुंजियअभिजुंजिय अभिभवति, णो तं परिस्सहा अभिजुंजिय- अभिजुंजिय अभिभवंति । 45 (२) से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्यइए समाणे पंचहिं महव्वएहिं णिस्संकिए 5 णिक्कंखिए जाव परिस्सहे अभिजुंजिय- अभिजुंजिय अभिभवइ, णो तं परिस्सहा अभिजुंजिय# अभिजुंजिय अभिभवंति । LE (SEGMENT OF VICTORY OF THE BELIEVER) FFFFLE LE LE (३) से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए छहिं जीवणिकाएहिं णिस्संकिते जाव परिस्सहे अभिजुंजिय- अभिजुंजिय अभिभवति, णो तं परिस्सहा अभिजुंजिय- अभिजुंजिय अभिभवंति । ४०६. व्यवसित ( श्रद्धावान् स्थितप्रज्ञ ) निर्ग्रन्थ के लिए तीन स्थान हित, शुभ और अनुगामिता के 5 कारण होते हैं Н (१) जो व्यक्ति मुण्डित हो घर त्यागकर अनगार धर्म में प्रव्रजित होकर निर्ग्रन्थ प्रवचन में 5 शंकारहित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सित, अभेदसमापन्न यावत् प्रसन्न भाव युक्त होकर निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धा करता है, प्रीति करता है, उसमें मन लगाता है, वह परीषहों से युद्ध कर उन्हें अभिभूत कर देता है, किन्तु परीषह उसे अभिभूत नहीं कर पाते । फ्र (२) जो मुण्डित हो, अनगार धर्म में प्रव्रजित होकर पाँच महाव्रतों में शंकारहित, कांक्षारहित, पाँच 5 महाव्रतों में श्रद्धा करता है, प्रीति करता है, रुचि करता है। वह परीषहों से युद्ध कर उन्हें पराजित कर देता है, उसे परीषह पराजित नहीं कर पाते। (३) जो मुण्डित हो अनगार धर्म में प्रव्रजित होकर छह जीवनिकायों के विषय में शंकारहित आदि होकर उनमें श्रद्धा करता है, वह परीषहों से लड़कर उन्हें पराजित कर देता है, किन्तु उसे परीषह 5 पराभूत नहीं कर पाते। 406. Three dispositions of a vyavasthit (believer or resolute) ascetic F are hitkar (beneficial), shubh (good), and so on up to... anugamik F (cause of meritorious bondage for future life) for him F (1) On getting tonsured and getting initiated as a homeless ascetic after renouncing his household, he has belief, awareness and interest in 5 तृतीय स्थान F 5 the ascetic-sermon without any suspicion, misgiving, doubt, distrust and Jain Education International (311) For Private & Personal Use Only Third Sthaan फ्र फफफफफफफफफफफ www.jainelibrary.org
SR No.002905
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2004
Total Pages696
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_sthanang
File Size21 MB
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