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फ्र Also Kalpasthiti (praxis observation) is of three kinds-(1) Nirvisht kalpasthiti, (2) Jinakalpasthiti, and (3) Sthavirakalpasthiti.
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विवेचन - अपनी सामर्थ्य के अनुसार आचार - मर्यादा का पालन करना कल्पस्थिति है। उक्त कल्पस्थितियों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है
(१) सामायिक कल्पस्थिति - सामायिक चारित्र की काल मर्यादा को सामायिक कल्पस्थिति कहते हैं ।
यह कल्पस्थिति प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के समय में स्वल्पकाल की (इत्यरिक) होती है, क्योंकि वहाँ छेदोपस्थापनीय कल्पस्थिति विहित है। शेष बाईस तीर्थंकरों के समय में तथा महाविदेह में जीवन - पर्यन्त ( यावत्कथित) होती है।
इस कल्प के अनुसार ( १ )
(३) पुरुषज्येष्ठत्व, और (४) कृतिकर्म; ये चार कल्प आवश्यक होते हैं तथा ( १ ) अचेलकत्व - वस्त्र का
निषेध या अल्प वस्त्र ग्रहण, (२) औद्देशिकत्व - एक साधु के उद्देश्य से बनाये गये आहार का दूसरे साम्भोगिक द्वारा अग्रहण, (३) राजपिण्ड का अग्रहण, (४) नियमित प्रतिक्रमण, (५) मासकल्प विहार, और (६) पर्युषणाकल्प - ये छह कल्प वैकल्पिक होते हैं ।
(२) छेदोपस्थानीय कल्पस्थिति - प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के समय में ही होती है।
(३) निर्विशमान कल्पस्थिति - परिहारविशुद्धि संयम की साधना करने वाले तपस्यारत साधुओं की आचार-मर्यादा |
शय्यातर --- र - पिण्ड - परिहार, (२) चातुर्यामधर्म का पालन,
( ४ ) निर्विष्टकल्प स्थिति - परिहारविशुद्धि संयम की साधना सम्पन्न कर चुकने वाले साधुओं की स्थिति । ( इसका विस्तृत वर्णन सचित्र अनुयोगद्वार, भाग २, पृष्ठ ३०९ पर किया गया है।)
(५) जिन कल्पस्थिति -अधिक प्रखर संयम की साधना करने के लिए गण, गच्छ आदि से निकलकर एकाकी विचरते हुए एकान्तवास करते हैं; उनकी आचार - मर्यादा ।
(६) स्थविर कल्पस्थिति-जो आचार्यादि के गण-गच्छ में स्थिर रहकर संयम की साधना करते हैं, उनकी आचार - मर्यादा ।
Elaboration-To observe the discipline of ascetic praxis to the best of
one's abilities is called kalpasthiti. The aforesaid kalpasthitis are explained as follows
5 स्थानांगसूत्र (१)
(1) Samayik kalpasthiti-The periodicity of Samayik chaaritra (Samayik conduct) is called Samayik kalpasthiti. This kalpasthiti is of a very short duration (itvarik) during the period of influence of first and last Tirthankars. This is because during that period Chhedopasthapaniya Charitra (conduct of re-initiation after rectifying faults) is prevalent. During the period of influence of the remaining
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Sthaananga Sutra ( 1 )
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