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PIPITI LICITI IPIRIPICI
i religion and lack of enthusiasm in religion, and (8) indulgence in wrong association. (Sanskrit Tika, p. 220)
२२१. अण्णउत्थिया णं भंते ! एवं आइक्खंति एवं भासंति एवं पण्णवेंति एवं परूवेंति कहणं समणाणं णिग्गंथाणं किरिया कज्जति ?
(१) तत्थ जा सा कडा कज्जइ, णो तं पुच्छंति। (२) तत्थ जा सा कडा णो कज्जति, णो तं पुच्छंति। (३) तत्थ जा सा अकडा णो कज्जति, णो तं पुच्छंति। (४) तत्थ जा सा अकडा कज्जति, तं पुच्छंति। से एवं वत्तव्वं सिया ?
अकिच्चं दुक्खं, अफुसं दुक्खं, अकज्जमाणकडं दुक्खं। अकटु-अकटु पाणा भूया जीवा सत्ता वेयणं वेदेतित्ति वत्तव्वं।
जे ते एवमाहंसु, मिच्छा ते एवमाहंसु। ___अहं पुण एवमाइक्खामि एवं भासामि एवं पण्णवेमि एवं परूवेमि-किच्चं दुक्खं, फुसं दुक्खं, कज्जमाणकडं दुक्खं। कटु-कटु पाणा भूया जीवा सत्ता वेयणं वेयंतित्ति वत्तव्ययं सिया।
॥ द्वितीय उद्देशक समत्त ॥ २२१. भदन्त ! कुछ अन्ययूथिक (दूसरे मत वाले) ऐसा आख्यान करते हैं, ऐसा भाषण करते हैं, 3 ऐसा प्रज्ञापन करते हैं, ऐसा प्ररूपण करते हैं कि क्रिया करने के विषय में श्रमण निर्ग्रन्थों का क्या अभिमत है
(१) जो क्रिया कृत (की हुई) होती है, उसका यहाँ प्रश्न नहीं है। (२) जो क्रिया की हुई नहीं होती, उसके विषय में भी यहाँ प्रश्न नहीं है। (३) जो क्रिया नहीं की हुई होती, उसका भी यहाँ प्रश्न नहीं है। (४) किन्तु जो नहीं की हुई है, उसका यहाँ प्रश्न है। उनका वक्तव्य इस प्रकार है(१) दुःखरूप कर्म अकृत्य है (आत्मा के द्वारा नहीं किया जाता)। (२) दुःख अस्पृश्य है (आत्मा से उसका स्पर्श नहीं होता)। (३) दुःख अक्रियमाण कृत है (वह आत्मा के द्वारा नहीं किये जाने पर होता है)। उसे बिना किये ही प्राण, भूत, जीव, सत्त्व, वेदना का वेदन करते हैं।
उत्तर-आयुष्मान् श्रमणो ! जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। किन्तु मैं ऐसा आख्यान करता हूँ, भाषण करता हूँ, प्रज्ञापन करता हूँ और प्ररूपण करता हूँ कि
(१) दुःख कृत्य है-(आत्मा के द्वारा उपार्जित किया जाता है।)
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IPIPIPIP IR LC LE ICE LC LE LIPI
तृतीय स्थान
(239)
Third Sthaan
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