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अहवा, तिविहे परिग्गहे पण्णत्ते, तं जहा-सचित्ते, अचित्ते, मीसए। एवं-णेरइयाणं णिरंतरं, जाव वेमाणियाणं। म ९५. परिग्रह तीन प्रकार का होता है-(१) कर्म-परिग्रह, (२) शरीर-परिग्रह, और (३) वस्त्रफ़ पात्र आदि बाह्य-परिग्रह। तीनों प्रकार का परिग्रह एकेन्द्रिय और नारकों को छोड़कर सभी दण्डक वाले
जीवों के होता है। ऊ अथवा तीन प्रकार का परिग्रह है-(१) सचित्त (जैसे शरीर अथवा सचेतन वस्तु का ममत्व भाव), + (२) अचित्त (धन आदि भोग्य पदार्थ), और (३) मिश्र दोनों पर ममत्व करना। यह तीनों प्रकार का परिग्रह सभी दण्डकों के जीवों के होता है।
95. Parigraha (desire for possessions) is of three kinds-(1) karmaparigraha (desire for possession of karmas), (2) sharira-parigraha (desire for possession of body), and (3) bahya-parigraha (desire for possession of external things, such as garb, bowls etc.). Leaving aside one-sensed beings and infernal beings these three kinds of desire for possessions are applicable to beings belonging to all dandaks (places of suffering) from Asur Kumars to Vaimanik gods.
Also parigraha (desire for possessions) is of three kinds—(fondness for-) (1) sachitt (living), (2) achitt (non-living), and (3) mishra (mixed). These three kinds of desire for possessions are applicable to all beings belonging to all dandaks (places of suffering) from infernal beings to Vaimanik gods. प्रणिधान-पद PRANIDHAN-PAD (SEGMENT OF CONCENTRATION)
९६. तिरिहे पणिहाणे पण्णत्ते, तं जहा-मणपणिहाणे, वयपणिहाणे, कायपणिहाणे। एवंपंचिंदियाणं जाव वेमाणियाणं।
९७. तिविहे सुप्पणिहाणे पण्णत्ते, तं जहा-मणसुप्पणिहाणे, वयसुप्पणिहाणे, कायसुप्पणिहाणे। ९८. संजयमणुस्साणं तिविहे सुप्पणिहाणे पण्णत्ते, तं जहा-मणसुप्पणिहाणे, वयसुप्पणिहाणे, कायसुप्पणिहाणे। __ ९९. तिविहे दुप्पणिहाणे पण्णत्ते, तं जहा-मणदुप्पगिहाणे, वयदुप्पणिहाणे, कायदुप्पणिहाणे। एवं-पंचिंदियाणं जाव वेमाणियाणं।
९६. प्रणिधान तीन प्रकार का होता है-(१) मनःप्रणिधान, (२) वचनप्रणिधान, और (३) कायप्रणिधान। ये तीनों प्रणिधान पंचेन्द्रियों से लेकर वैमानिक देवों तक सभी दण्डकों में होते हैं। __ ९७. सुप्रणिधान तीन प्रकार का होता है-(१) मनःसुप्रणिधान, (२) वचनसुप्रणिधान, और
(३) कायसुप्रणिधान। ९८. संयत मनुष्यों के तीन सुप्रणिधान होते हैं-(१) मनःसुप्रणिधान, म (२) वचनसुप्रणिधान, और (३) कायसुप्रणिधान।
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स्थानांगसूत्र (१)
(202)
Sthaananga Sutra (1)
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