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5 के द्वार पर स्थित वृक्ष) चलित होते हैं - अरहन्तों के जन्म होने पर [ अरहन्तों के प्रव्रज्या और केवलज्ञान 5 प्रसंग पर । ८६. तीन कारणों से लोकान्तिक देव (पाँचवें देवलोक में लोक के अन्त भाग में रहने वाले) तत्क्षण मनुष्यलोक में आते हैं - (१) अरहन्तों के जन्म होने पर, (२) अरहन्तों के प्रव्रजित होने के अवसर, और (३) अरहन्तों के केवलज्ञान उत्पन्न होने की महिमा के प्रसंग पर ।
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5 दुष्प्रतिकार- पद DUSHPRATIKAR-PAD (SEGMENT OF DIFFICULT RECOMPENSE) ८७. तिन्हं दुप्पडियारं समणाउसो ! तं जहा - अम्मापिउणो, भट्टिस्स, धम्मायरियस्स ।
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81. There are three reasons (occasions) for gods to get up at once from their thrones - ( 1 ) at the time of birth of Arihants, (2) at the time of 5 initiation of Arihants, and (3) at the time of celebrating the attainment of omniscience by Arihants. The same is true for the following actions of gods — 82. movement of thrones, 83. roaring like a lion (simhanaad), and 84. tossing of dresses (chelotkshep ). 85. There are three reasons for swinging of the divine chaitya vrikshas (trees located at the gates of फ Sudharma sabha or divine assembly) — at the time of birth of Arihants... फ्र and so on (at the time of initiation of Arihants and at the time of celebrating the attainment of omniscience by Arihants). 86. There are three reasons for Lokantik gods (gods dwelling at the edge of the universe in the fifth dev-lok) for coming to the earth at once-(1) at the time of birth of Arihants, (2) at the time of initiation of Arihants, and (3) at the time of celebrating the attainment of omniscience by Arihants. 5
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(२) केइ महच्चे दरिद्दं समुक्कसेज्जा । तए णं से दरिद्दे समुक्किट्ठे समाणे पच्छा पुरं च णं # विउलभोगसमितिसमण्णागते यावि विहरेज्जा । तए णं से महच्चे अण्णया कयाइ दरिद्दीहूए समाणे तस्स दरिद्दस्स अंतिए हव्वमागच्छेज्जा । तए णं से दरिद्दे तस्स भट्टिस्स सव्वस्समवि दलयमाणे तेणावि तस्स दुप्पडियारं भवति । अहे णं से तं भट्टि केवलिपण्णत्ते धम्मे आघवइत्ता पण्णवइत्ता परुवइत्ता टावइत्ता भवति, तेणामेव तस्स भट्टिस्स सुप्पडियारं भवति ।
(१) संपातोवि य णं केइ पुरिसे अम्मापियरं सयपागसहस्सपागेहिं तेल्लेहिं अब्भंगेत्ता, सुरभिणा गंधट्टएणं उव्यट्टित्ता, तिहिं उदगेहिं मज्जावेत्ता, सव्वालंकारविभूसियं करेत्ता, मणुण्णं थालीपागसुद्धं अट्ठारसवंजणाउलं भोयणं भोयावेत्ता जावज्जीवं पिट्ठिवडेंसियाए परिवहेज्जा, तेणावि तस्स अम्मापिउस्स दुप्पडियारं भवइ । अहे णं से तं अम्मापियरं केवलिपण्णत्ते धम्मे आघवइत्ता पण्णवइत्ता परूवइत्ता टावइत्ता भवति, तेणामेव तस्स अम्मापिउस्स सुप्पडियारं भवति समणाउसो !
(३) केइ तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि आरियं धम्मियं सुवयणं सोच्चा णिसम्म कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववण्णे । तए णं से देवे तं
स्थानांगसूत्र (१)
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Sthaananga Sutra (1)
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