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5 indriya (without fully developed sense organs). 184. (8) Paryaptak (fully 4
developed in all respects) and aparyaptak (underdeveloped in any 4 respect). 185. (9) Sanjni (with fully developed mental faculty; sentient;
five-sensed beings up to interstitial gods) and asanjni (without fully + developed mental faculty). 186. (10) Bhaashak (with fully developed :
faculty of speech) and abhaashak (without fully developed faculty of
speech). 187. (11) Samyagdrishti (with right perception/faith) and 9 mithyadrishti (with wrong perception/faith), 188. (12) Paritta samsari 4 (having limited wanderings in cycles of rebirth) and aparitta samsari
(having unlimited wanderings in cycles of rebirth). 189. (13) Samkhyeya kaal sthitik (with life span of countable years, such as one sensed to four sensed beings) and asamkhyeya kaal sthitik (with life span of
innumerable years, all beings except one sensed beings, beings with two 4 to four sense organs and interstitial gods). 190. (14) Sulabh bodhik
(for whom righteousness is easily attainable) and durlabh bodhik (to whom righteousness is difficult to get). 191. (15) Krishnapakshik (unworthy of being liberated) and shuklapakshik (worthy of being
liberated). 192. (16) Charam (to be liberated after one reincarnation) and 5 acharam (all others). The above classification should be understood in 1 case of all the dandaks from infernal beings up to Vaimanik gods.
विवेचन-आहार तीन प्रकार के होते हैं-(१) ओज आहार, (२) लोम आहार, और म (३) कवलाहार। अपने स्थान पर उत्पत्ति के समय जीव जो आहार ग्रहण करता है, वह ओज आहार है। 5
शरीर के रोम कूपों के द्वारा जो आहार ग्रहण किया जाता है, वह लोम आहार है। यह सभी जीवों द्वारा ॐ लिया जाता है। कवल (ग्रास) के द्वारा ग्रहण किया जाने वाला कवलाहार है। एकेन्द्रिय जीव तथा देव 卐 और नारकीय कवलाहार नहीं लेते। जो जीव इन तीनों में से किसी भी आहार को लेता है वह आहारक,
तथा जो किसी भी आहार को नहीं लेता वह अनाहारक होता है। सिद्ध अनाहारक होते हैं। संसारी जीवों 3 में अयोगी केवली तथा केवलिसमुद्घात के समय केवली तीन समय तक अनाहारक रहते हैं।
जो विग्रहगति से भवान्तर में जाते हुए एक मोड़ या दो मोड़ करते हैं, वे एक या दो समय तक ॐ अनाहारक रहते हैं। जो जीव त्रस नाड़ी से मरकर पुनः त्रसं नाड़ी में ही उत्पन्न होते हैं। वे एक या दो
समय अनाहारक रहते हैं, किन्तु लोक नाड़ी में प्रविष्ट हुए एकेन्द्रिय जीवों की अनाहारक अवस्था तीन समय की ही होती है। (विशेष स्पष्टता के लिए देखो संलग्न चित्र)
सूत्र १८५ में विशेष-विकलेन्द्रिय जीव केवल असंज्ञी होते हैं। ज्योतिष्क और वैमानिक जीव केवल संज्ञी होते हैं। वैमानिक भवनपति और वाणव्यन्तर जीव संज्ञी होते हैं, किन्तु पूर्व जन्म की अपेक्षा उन्हें दोनों ही कहा है। शेष सभी जीव दोनों होते हैं।
सूत्र १८६. एकेन्द्रिय जीव अभाषक होते हैं। शेष सभी दोनों ही होते हैं।
स्थानांगसूत्र (१)
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Sthaananga Sutra (1) |
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