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delusion caused by fruition of deluding karma is difficult to suffer and get rid of as compared to that caused by evil spirit.
ॐ दण्ड-पद DAND-PAD (SEGMENT OF INDULGENCE IN IGNOBLE ACTION)
७६. दो दंडा पण्णत्ता, तं जहा-अट्ठाडे चेव, अणद्वादडे चेव। ७७. णेरइयाणं दो दंडा ऊ पण्णता, तं जहा-अट्ठादंडे य। ७८. एवं चउवीसादंडओ जाव वेमाणियाणं।
७६. दण्ड (पाप कर्म रूप प्रवृत्ति) दो प्रकार का है-अर्थदण्ड (प्रयोजन सहित) और अनर्थदण्ड (बिना प्रयोजन)। ७७. नारकियों में दोनों प्रकार के दण्ड कहे गये हैं-अर्थदण्ड और अनर्थदण्ड। ७८, इसी प्रकार वैमानिक तक के सभी दण्डकों में दो-दो दण्ड जानना चाहिए।
76. Dand (indulgence in ignoble action) is of two kinds-arth-dand indulgence in ignoble action with a purpose) and anarth-dand (indulgence in ignoble action without any purpose). 77.Dand (indulgence in ignoble action) related to naarakiyas (infernal beings) is of two kinds—arth-dand (indulgence in ignoble action with a purpose) and anarth-dand (indulgence in ignoble action without any purpose). 78. In the same way all the dandaks (places of suffering) up to Vaimaniks
(celestial vehicle dwelling gods) have two dands each. के दर्शन-पद DARSHAN-PAD (SEGMENT OF FAITH)
७९. दुविहे दंसणे पण्णत्ते, तं जहा-सम्मइंसणे चेब, मिच्छादसणे चेव। ८०. सम्मइंसणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-णिसग्गसम्मइंसणे चेव, अभिगमसम्मइंसणे चेव। ८१. णिसग्गसम्मइंसणे दुविहे
पण्णत्ते, तं जहा-पडिवाइ चेव, अपडिवाइ चेव। ८२. अभिगमसम्मइंसणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहाम पडिवाइ चेव, अपडिवाइ चेव। ८३. मिच्छाइंसणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-अभिग्गहिय मिच्छादसणे ॐ चेव, अणभिग्गहिय मिच्छादसणे चेव। ८४. अभिग्गहिय मिच्छादसणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा
सपज्जवसिते चेव, अपज्जवसिते चेव। ८५. अणभिग्गहिय मिच्छादसणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहाॐ सपज्जवसिते चेव, अपज्जवसिते चेव।
७९. दर्शन (तत्त्व विषयक श्रद्धा या रुचि) दो प्रकार का है-सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शन। ॐ ८०. सम्यग्दर्शन (वस्तु के प्रति यथार्थ श्रद्धा) दो प्रकार का है-निसर्गसम्यग्दर्शन (आत्मा की सहज ॥
निर्मलता होने पर किसी बाह्य निमित्त के बिना स्वतः उत्पन्न होने वाला) और अभिगमसम्यग्दर्शन (शास्त्र + सुनकर अथवा गुरु-उपदेश आदि के निमित्त से उत्पन्न होने वाला)। ८१. निसर्गसम्यग्दर्शन दो प्रकार का ॐ है-प्रतिपाती-(प्राप्त होकर पुनः नष्ट हो जाने वाला औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन) और 5 5 अप्रतिपाति (नष्ट नहीं होने वाला क्षायिकसम्यक्त्व)। ८२. अभिगमसम्यग्दर्शन दो प्रकार का है-प्रतिपाती
और अप्रतिपाती। ८३. मिथ्यादर्शन दो प्रकार का है-आभिग्रहिक (इस भव में ग्रहण किया गया मिथ्यात्व ॐ अथवा किसी विपरीत सिद्धान्त के आग्रहवश। यह केवल संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में होता है) और
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स्थानांगसूत्र (१)
(60)
Sthaananga Sutra (1)
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