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conversant with the right code of conduct. Gautam ! I call such person a 4 desh-araadhak (partially steadfast spiritual aspirant).
(2) Second of these is not endowed with right conduct but knows the canon. He does not refrain from indulgence in sinful activities but is fully conversant with the right code of conduct. Gautam ! I call such person a desh-viraadhak (partially faltering spiritual aspirant).
(3) Third of these is endowed with right conduct as well as the canon. He is free of indulgence in sinful activities and is also fully conversant with the right code of conduct. Gautam ! I call such person a sarvaaraadhak (fully steadfast spiritual aspirant).
(4) Fourth of these is endowed neither with right conduct nor with the canon. He is neither free of indulgence in sinful activities nor fully
conversant with the right code of conduct. Gautam ! I call such person a 卐 sarva-viraadhak (fully faltering spiritual aspirant).
विवेचन : श्रुत और शील की आराधना एवं विराधना की दृष्टि से भगवान द्वारा अन्यतीर्थिक मत निराकरणपूर्वक स्वसिद्धान्तप्ररूपण-प्रस्तुत द्वितीय सूत्र में अन्यतीर्थिकों की श्रुत-शील सम्बन्धी एकान्त मान्यता का निराकरण + करते हुए भगवान द्वारा प्रतिपादित श्रुत-शील की आराधना-विराधना-सम्बन्धी चतुर्भंगी रूप स्वसिद्धान्त प्र प्रस्तुत किया गया है। 卐 अन्यतीर्थिकों की श्रुत-शीलसम्बन्धी मिथ्या मान्यताएँ-(१) कुछ अन्यतीर्थिक यों मानते हैं कि शील अर्थात् + क्रिया मात्र ही श्रेयस्कर है. श्रुत अर्थात् ज्ञान से कोई प्रयोजन नहीं। (२) कुछ अन्यतीर्थिकों का कहना है कि
ज्ञान (श्रुत) ही श्रेयस्कर है। ज्ञान से ही अभीष्ट अर्थ की सिद्धि होती है, क्रिया से नहीं। ज्ञानरहित क्रियावान्
पुरुष को अभीष्ट फलसिद्धि के दर्शन नहीं होते। (३) कितने ही अन्यतीर्थिक परस्पर निरपेक्ष श्रत और शील को ॐ श्रेयस्कर मानते हैं। उनका कहना है कि ज्ञान क्रियारहित भी फलदायक है, क्योंकि क्रिया उसमें गौण रूप से
रहती है, अथवा क्रिया ज्ञानरहित हो तो भी फलदायिनी है, क्योंकि उसमें ज्ञान गौण रूप से रहता है। इन दोनों 5 में से कोई भी एक, पुरुष की पवित्रता का कारण है। + प्रथम के दोनों मत एकान्त होने से मिथ्या हैं, क्योंकि श्रुत और शील दोनों पृथक्-पृथक् या गौण मुख्य न
रहकर समुदित रूप में साथ-साथ रहने पर ही मोक्षफलदायक होते हैं। इस सम्बन्ध में वृत्तिकार ने दो दृष्टान्त दिये हैं-(१) जैसे रथ के दोनों पहियों के एक साथ जुड़ने पर ही रथ चलता है, तथा (२) अन्धा और पंगु दोनों मिलकर ही अभीष्ट नगर में प्रविष्ट हो सकते हैं
संजोगसिद्धीइ फलं वयंति, न ह एगचक्केण रहो पयाइ।
अंधो य पंग य वणे समिच्चा, ते संपत्ता नगरं पविट्ठा ।। अतः श्रुत और शील दोनों के एक साथ समायोग को ही अभीष्ट फलदायक मानते हैं।
श्रुत-शील की चतुर्भंगी का आशय- (१) प्रथम भंग का स्वामी शील-सम्पन्न है, श्रुत-सम्पन्न नहीं, उसका आशय यह है कि स्वबुद्धि से ही पापों से निवृत्त हुआ है। उसने धर्म को विशेष रूप नहीं जाना। इस भंग का
भगवती सूत्र (३)
(274)
Bhagavati Sutra (3)
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