________________
குசுமி*த*******************தமிழதழததததத
5
faith as well as through fruition (udaya) of Darshanavaraniya-karman
卐
5 sharira-prayoga-naam-karma (karma responsible for perception / faith obscuring karmic body formation).
१००. [ प्र. ] सायावेयणिज्जकम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं ?
[उ. ] गोयमा ! पाणाणुकंपयाए भूयाणुकंपयाए, एवं जहा सत्तमसए दुस्समा - उ ( छट्टु ) देसए जाव अपरियावणयाए (स. ७, उ. ६, सु. २४) सायावेयणिज्जकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं सायावेयणिज्जकम्मा जाव पयोगबंधे।
है,
[ उ. ] गौतम ! प्राणियों पर अनुकम्पा करने से, भूतों (चार स्थावर जीवों) पर अनुकम्पा करने से इत्यादि, जिस प्रकार (भगवतीसूत्र के ) सातवें शतक के दुःषम नामक छठे उद्देशक (सूत्र २४ ) में कहा उसी प्रकार यहाँ भी, यावत् प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों को परिताप उत्पन्न न करने से सातावेदनीय कर्मशरीर- प्रयोग - नामकर्म के उदय से सातावेदनीय- कर्मशरीर-प्रयोगबन्ध होता है, तक कहना चाहिए ।
100. [Q.] Bhante ! What karma is responsible for Satavedaniya - karman-sharira-prayoga-bandh (bondage related to experiencing karmic body formation)?
[Ans.] Gautam !
Satavedaniya-karman-sharira-prayoga-bandh (bondage related to pleasure experiencing karmic body formation) is acquired through being compassionate to one-sensed beings (praanis), being compassionate to four types of immobile beings (bhoots), etc. as mentioned in Duhsham, the sixth lesson of the seventh Shatak (of Bhagavati Sutra) up to through not causing torment to Praan (two, three, and four sensed beings), Bhoot (plant-bodied beings), Jiva (five sensed beings or animals, humans, gods and hell beings), and Sattva फ (earth-bodied beings, water-bodied beings, fire-bodied beings, and airbodied beings), as well as through fruition ( udaya) of Satavedaniya - karman-sharira-prayoga-naam-karma (karma responsible for pleasure experiencing karmic body formation).
55555
१००. [ प्र. ] भगवन् ! सातावेदनीय कर्मशरीर - प्रयोगबन्ध किस कर्म के उदय से होता है ?
卐
१०१. [ प्र. ] अस्सायावेयणिज्ज० पुच्छा ।
[उ. ] गोयमा ! परदुक्खणयाए परसोयणयाए जहा सत्तमसए दुस्समा - उ ( छट्टु ) द्देसए जाव परियावणयाए ( स. ७, उ. ६, सु. २८) अस्सायावेयणिज्जकम्मा जाव पयोगबंधे।
अष्टम शतक नवम उद्देशक
१०१. [ प्र. ] भगवन् ! असातावेदनीय कार्मणशरीर - प्रयोगबन्ध किस कर्म के उदय से होता है ?
फ्र
तथा
[ उ. ] गौतम ! दूसरे जीवों को दुःख पहुँचाने से, उन्हें शोक उत्पन्न करने से इत्यादि; जिस प्रकार
Eighth Shatak: Ninth Lesson
Jain Education International
यहाँ
(251)
pleasure
For Private & Personal Use Only
* 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 59
卐
சு
卐
卐
卐
卐
卐
5
சு
卐
卐
www.jainelibrary.org