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________________ फफफफफफफ 5 தததததததததததி*********************தமிழில் १३१. [ प्र. ] मणपज्जवनाणस्स णं भंते ! केवइए विसए पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! से समासओ चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा-दव्यओ खेत्तओ कालओ भावओ। दव्वओ णं उज्जुमती अनंते अणंतपदेसिए जहा नंदीए जाव भावओ । 卐 卐 卐 १३१. [ प्र. ] भगवन् ! मनः पर्यवज्ञान का विषय कितना है ? 卐 [उ. ] गौतम ! मनः पर्यवज्ञान विषय संक्षेप में चार प्रकार का है । यथा - द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से 卐 5 और भाव से । द्रव्य से, ऋजुमति- मनः पर्यवज्ञानी (मनरूप में परिणत) अनन्त प्रादेशिक अनन्त ( स्कन्धों ) 5 को जानता - देखता है । इत्यादि नन्दीसूत्र में कहे अनुसार यहाँ भी यावत् 'भाव' तक कहना चाहिए। 131. [Q.] Bhante ! How wide is the scope (vishaya) of manah-paryavjnana (extrasensory perception and knowledge of thought process and thought-forms of other beings, something akin to telepathy)? 卐 [Ans.] Gautam ! In brief the scope (vishaya) of Manah-paryav-jnana (extrasensory perception and knowledge of thought process and thoughtforms of other beings, something akin to telepathy) has four domains5 those related to substance or matter (dravya), area or space (kshetra ), 5 time (kaal) and state or mode (bhaava). As to substance, a living being 卐 with limited (rijumati) Manah-paryav-jnana knows and sees infinite aggregates of infinite space-points (transformed as thoughts). After this follow details in context of space, time and state as mentioned in Nandi 5 Sutra up to bhaava. भगवती सूत्र (३) 5555 卐 विवेचन : मनःपर्यवज्ञान का विषय-मनः पर्यवज्ञान के दो प्रकार हैं- (१) ऋजुमति आर (२) विपुलमति । सामान्यग्राही मनन-मति या संवेदन को ऋजुमति मनःपर्यायज्ञान कहते हैं । जैसे- 'इसने घड़े का चिन्तन किया है', फ इस प्रकार के अध्यवसाय का कारणभूत (सामान्य कतिपय पर्याय विशिष्ट) मनोद्रव्य का ज्ञान या ऋजु - सरलमति वाला ज्ञान । द्रव्य से - ऋजुमतिमनः पर्यायज्ञानी ढाई द्वीप - समुद्रान्तर्वर्त्ती संज्ञीपंचेन्द्रियपर्याप्तक जीवों द्वारा मनोरूप से परिणमित मनोवर्गणा के अनन्त परमाण्वात्मक (विशिष्ट एक परिणामपरिणत ) स्कन्धों को मनः पर्यायज्ञानावरण की क्षयोपशमपटुता के कारण साक्षात् जानता-देखता है । परन्तु जीवों द्वारा चिन्तित घटादिरूप 5 पदार्थों को मनःपर्यायज्ञानी प्रत्यक्षतः नहीं जानता, किन्तु उसके मनोद्रव्य के परिणामों की अन्यथानुपपत्ति से (इस 5 प्रकार के आकार वाला मनोद्रव्य का परिणाम, इस प्रकार के चिन्तन बिना घटित नहीं हो सकता, इस तरह के अन्यथानुपपत्तिरूप अनुमान से) जानता है। इसीलिए यहाँ 'जाणइ' के बदले 'पासइ' (देखता है) कहा गया | अनेक विशेषताओं से युक्त मनोद्रव्य के ज्ञान को 'विपुलमतिमनःपर्यायज्ञान' कहते हैं । जैसे- इसने घट का चिन्तन किया है, वह घट द्रव्य से सोने का बना हुआ है, क्षेत्र से - पाटलिपुत्र का है, काल से नया है या वसन्त 卐 ऋतु का है और भाव से बड़ा है अथवा पीले रंग का है। इस प्रकार की विशेषताओं से युक्त मनोद्रव्यों को फ विपुलमति जानता है। अर्थात् ऋजुमति द्वारा देखे हुए स्कन्धों की अपेक्षा विपुलमति अधिकतर वर्णादि से सुस्पष्ट, उज्ज्वलतर और विशुद्धतर रूप से जानता देखता है। क्षेत्र से - ऋजुमति जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग तथा उत्कृष्टतः मनुष्यलोक में रहे हुए संज्ञीपंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों के मनोगत भावों को फ फ्र 卐 卐 Jain Education International (78) For Private & Personal Use Only 卐 Bhagavati Sutra (3) 卐 5 फ 卐 卐 फ 5 卐 15纷纷 卐 www.jainelibrary.org
SR No.002904
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhyaprajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2008
Total Pages664
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_bhagwati
File Size21 MB
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