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________________ 25959595 5 5 5 5 5 55 5 55 5 5 55 5555555595555 卐 5 केवलज्ञान होता है; इस तरह ऐसे जीवों में पाँच ज्ञान भजना से होते हैं। इनका कथन यहाँ ज्ञानलब्धि की अपेक्षा 5 5 से समझना चाहिए, उपयोग की अपेक्षा से तो एक समय में एक ही ज्ञान अथवा एक ही अज्ञान होता है। इनमें जो जीव अज्ञानी हैं, उनमें तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं। आभिनिबोधिक (मति) ज्ञान आदि साकारोपयोग के भेद हैं। आभिनिबोधिक आदि से युक्त साकारोपयोग वाले जीवों में ज्ञान अज्ञान का कथन उपर्युक्त वर्णनानुसार उस-उस ज्ञान या अज्ञान की लब्धि वाले जीवों के समान जानना चाहिए। अनाकारोपयोग - जिस ज्ञान में आकार अर्थात् जाति, गुण, क्रिया आदि स्वरूपविशेष का प्रतिभास (बोध) न हो, केवल सामान्य बोध हो, उसे अनाकारोपयोग ( दर्शनोपयोग ) कहते हैं। अनाकारोपयोगयुक्त जीव ज्ञानी और अज्ञानी दोनों तरह के होते हैं। ज्ञानी जीवों में लब्धि की अपेक्षा पाँच ज्ञान भजना से और अज्ञानी जीवों में लब्धि की अपेक्षा तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं। चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन वाले जीव केवली नहीं होते, इसलिए चक्षुदर्शन-अचक्षुदर्शन - अनाकारोपयोग जीवों चार ज्ञान अथवा तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं। 5 अवधिदर्शन - अनाकारोपयोगयुक्त जीव ज्ञानी और अज्ञानी दो तरह के होते हैं; क्योंकि दर्शन का विषय सामान्य है । सामान्य अभिन्न रूप होने से दर्शन में ज्ञानी और अज्ञानी भेद नहीं होता । अतः इसमें कई तीन या चार ज्ञान वाले होते हैं अथवा नियमतः तीन अज्ञान वाले होते हैं। साकारोपयोग एवं अनाकारोपयोग को हम इस प्रकार भी समझ सकते हैं जैसे ज्ञान से हम जानते हैं कि मेरू पर्वत इतना लंबा चौड़ा ऊँचा है उसके बाद हम उसके आकार का चिंतन कर सकते हैं इसलिए ज्ञान साकारोपयोग है। दर्शन में हम स्वयं देखते हैं इसलिए उसके 5 आकार का चिंतन नहीं करते इसलिए दर्शन को अनाकार उपयोग कहते हैं। 卐 55 2 १३. कषायद्वार - सकषायी या क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी और लोभकषायी जीवों में ज्ञान-अज्ञान प्ररूपणा सेन्द्रिय (सूत्र ४१ के अनुसार) के सदृश हैं। अष्टम शतक: द्वितीय उद्देशक ११. योगद्वार - सयोगी जीव अथवा मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी जीवों का कथन सकायिक जीवों क के समान है। चूँकि केवली भगवान में भी मनोयोगादि होते हैं, इसलिए इनमें (सम्यग्दृष्टि आदि में) पाँच ज्ञान भजना से होते हैं तथा मिथ्यादृष्टि सयोगी या पृथक्-पृथक् योग वाले जीवों में तीन अज्ञान भजना से होते हैं । अयोगी (सिद्ध भगवान और चतुदर्शगुण-स्थानवर्ती केवली) जीवों में एक मात्र केवलज्ञान होता है। फ्र Jain Education International 5 १२. लेश्याद्वार-लेश्यायुक्त (सलेश्य) जीवों में ज्ञान - अज्ञान की प्ररूपणा सकषायी जीवों के समान है। उनमें पाँच ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से समझने चाहिए। चूँकि केवली भगवान में भी शुक्ललेश्या होने से सलेश्य 5 होते हैं, इसलिए उनमें पंचम केवलज्ञान होता है। अलेश्य जीव सिद्ध होते हैं, उनमें एक मात्र केवलज्ञान ही 5 होता है। (71) १४. वेदद्वार - सवेदक आठवें गुणस्थान तक और नौवें के कुछ भाग तक के जीव होते हैं। उनका कथन सेन्द्रिय के समान है अर्थात् उनमें केवलज्ञान को छोड़कर शेष चार ज्ञान अथवा तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं । अवेदक (वेदरहित ) जीवों में ज्ञान ही होता है, अज्ञान नहीं । नौवें अनिवृत्तिबादर नामक गुणस्थान से चौदहवें 5 गुणस्थान तक के जीव अवेदक होते हैं। उनमें से बारहवें गुणस्थान तक के जीव छद्मस्थ होते हैं, अतः उनमें 5 चार ज्ञान (केवलज्ञान के सिवाय) भजना से पाये जाते हैं तथा तेरहवें - चौदहवें गुणस्थानवर्ती जीव केवली होते हैं, इसलिए उनके सिर्फ एक पंचम ज्ञान - केवलज्ञान होता है, इसी दृष्टि से कहा गया है कि 'अवेदक' में पाँच ज्ञान पाये जाते हैं।' For Private & Personal Use Only फ 5 卐 卐 5 卐 卐 Eighth Shatak: Second Lesson 5 卐 www.jainelibrary.org
SR No.002904
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhyaprajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2008
Total Pages664
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_bhagwati
File Size21 MB
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