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“I bow and convey my reverence to the worthy ones (Arhantanam), ... and so on up to... who have attained the state of ultimate perfection, known as siddha gati. I bow and pay homage to my religious teacher and preceptor Shraman Bhagavan Mahavir, the founder of religion... and so on up to... the aspirant of the state of ultimate perfection. From here I pay homage to Bhagavan seated there. May Bhagavan see me from there." Uttering these words he paid homage and obeisance. After that he uttered further-"Earlier, I had renounced, for life, any harming of beings... and so on up to ... possessions in general (gross) before Shraman Bhagavan Mahavir. But now, I once again renounce, for life, any harming of beings (both gross and subtle) before Bhagavan Mahavir." This way, like Skandak (he renounced all the eighteen places of sin). Then uttering-"I dissociate myself from this body till my last breath," he removed his armour. Then he pulled out the arrow from his body. He finally performed critical review (pratikraman) and passed away after attaining the state of total tranquillity of mind.
[ १२ ] तए णं तस्स वरुणस्स नागनत्तुयस्स एगे पियबालवयंसए रहमुसलमं संगामं संगामेमाणे एगेणं पुरिसेणं गाढप्पहारीक समाणे अत्थामे अबले जाव अधारणिज्जमिति कट्टु वरुणं नागनत्तुयं रहमुसलातो संगामातो पडिनिक्खममाणं पासति, पासित्ता तुरए निगिण्हति, तुरए निगिण्हित्ता जहा वरुणे नागनत्तुए जाव तुरए विसज्जेति, विसज्जित्ता दब्भसंथारगं दुरुहति, दब्भसंथारंग दुरुहित्ता पुरत्थाभिमुहे जाव अंजलिं कट्टु एवं वयासी-जाईं णं भंते ! मम पियबालवयंसस्स वरुणस्स नागनत्तुयस्स सीलाई बताई गुणाई वेरमणाइं पच्चक्खाणपोसहोववासाई ताई णं ममं पि भवंतु त्ति कट्टु सन्नाहपट्टं मुयइ, सन्नाहपट्टं मुइत्ता सल्लुद्धरणं करेति, सल्लुद्धरणं करेत्ता आणुपुब्बीए कालगते ।
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[ १२ ] उस वरुण नागनत्तुआ का एक प्रिय बालमित्र भी रथमूसल संग्राम में युद्ध कर रहा था । वह भी एक पुरुष द्वारा प्रबल प्रहार करने से घायल हो गया। इससे अशक्त, अबल, यावत् पुरुषार्थ- पराक्रम से रहित बने हुए उसने सोचा- अब मेरा शरीर टिक नहीं सकेगा । जब उसने वरुण नागनत्तुआ को रथमूसलसंग्राम-स्थल से बाहर निकालते हुए देखा, तो वह भी अपने रथ को वापिस फिरा कर रथमूसलसंग्राम से बाहर निकला, घोड़ों को रोका और जहाँ वरुण नागनत्तुओं ने घोड़ों को रथ से खोलकर विसर्जित किया था, वहाँ उसने भी घोड़ों को विसर्जित कर दिया। फिर दर्भ के संस्तारक को बिछाकर उस पर बैठा। दर्भसंस्तारक पर बैठकर पूर्व दिशा की ओर मुख करके यावत् दोनों हाथ जोड़कर यों बोला-‘भगवन् ! मेरे प्रिय बालमित्र वरुण नागनप्तृक के जो शीलव्रत, गुणव्रत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास हैं, वे सब मेरे भी हों', इस प्रकार कहकर उसने कवच खोला । कवच खोलकर शरीर में लगे हुए बाण को बाहर निकाला। इस प्रकार करके वह भी क्रमशः समाधियुक्त होकर कालधर्म को प्राप्त हुआ ।
सप्तम शतक : नवम उद्देशक
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Seventh Shatak: Ninth Lesson
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