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२१. [प्र. ] अस्थि णं भंते ! नेरइयाणं अकक्कसवेयणिज्जा कम्मा कजंति ? [उ. ] गोयमा ! णो इणढे समढे। २२. एवं जाव वेमाणिया। नवरं मणुस्साणं जहा जीवाणं (सु. १९)।
२१. [प्र. ] भगवन् ! क्या नैरयिक जीवों के अकर्कशवेदनीय कर्म बँधते हैं ? __ [उ. ] गौतम ! (नैरयिकों के अकर्कशवेदनीय कर्मों का बन्ध नहीं होता।)
२२. इसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए। परन्तु मनुष्यों के विषय में इतना विशेष है है कि जैसे औधिक जीवों के विषय में कहा गया है, वैसे ही सारा कथन करना चाहिए।
21. [Q.] Bhante ! Do infernal beings acquire bondage of akarkash vedaniya karmas (karmas causing harsh suffering or extreme anguish) ? 卐 [Ans.] Gautam ! That is not correct (they do not acquire bondage of akarkash vedaniya karmas).
22. The same should be repeated... and so on up to... Vaimaniks. However, in case of human beings the statement follows the pattern of
jivas (in general). ॐ साता-असातावेदनीय कर्म PLEASURE AND PANCAUSING VEDANIYA KARMA
२३. [प्र. ] अत्थि णं भंते ! जीवाणं सातावेदणिज्जा कम्मा कति ? [उ.] हंता, अत्थि। २३. [प्र. ] भगवन् ! क्या जीवों के सातावेदनीय कर्म बँधते हैं ? [उ. ] हाँ, गौतम ! बँधते हैं।
23. (Q.) Bhante ! Do jivas acquire bondage of sata vedaniya karmas (karmas causing pleasant experience) ?
(Ans.] Yes, Gautam ! They do. २४. [प्र. ] कहं णं भंते ! जीवाणं सातावेदणिज्जा कम्मा कजंति ? [उ. ] गोयमा ! पाणाणुकंपाए भूयाणुकंपाए, जीवाणुकंपाए सत्ताणुकंपाए, बहूणं पाणाणं जाव सत्ताणं अदुक्खणयाए, असोयणयाए, अजूरणयाए, अतिप्पणयाए, अपिट्टणयाए, अपरितावणयाए; एवं खलु गोयमा ! जीवाणं सातावेदणिज्जा कम्मा कजंति।
२४. [प्र. ] भगवन् ! जीवों के सातावेदनीय कर्म कैसे बँधते हैं ?
[उ.] गौतम ! प्राणों पर (१) अनुकम्पा करने से, भूतों पर अनुकम्पा करने से, जीवों के प्रति अनुकम्पा करने से और सत्त्वों पर अनुकम्पा करने से; तथा बहुत से प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों को 卐 (२) दुःख न देने से, (३) उन्हें शोक (दैन्य) उत्पन्न न करने से, (४) (शरीर को सुखा देने वाली) चिन्ता
| भगवती सूत्र (२)
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Bhagavati Sutra (2)
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