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ததததமி********மிமிமிமிமிதத***மிமிமிமிமிமிததமிழதமிழ दशविध सर्वोत्तरगुण प्रत्याख्यान - ( १ ) अनागत- भविष्य में जो तप, नियम या प्रत्याख्यान करना है, उसमें 5 फ्र भविष्य में बाधा पड़ती देखकर उसे पहले ही कर लेना । (२) अतिक्रान्त- पहले जो तप, नियम, व्रत- प्रत्याख्यान 卐 करना था, उसमें गुरु, तपस्वी एवं रुग्ण की सेवा आदि कारणों से बाधा पड़ने के कारण उस तप, व्रत- फ्र प्रत्याख्यान आदि को बाद में करना, (३) कोटिसहित - जहाँ एक प्रत्याख्यान की समाप्ति तथा दूसरे प्रत्याख्यान फ्र की आदि एक ही दिन में हो जाये । तप की कड़ी नहीं टूटे। जैसे-उपवास के पारणे में आयंबिल आदि तप 5 करना । ( ४ ) नियंत्रित - जिस दिन जो प्रत्याख्यान करने का निश्चय किया है, उस दिन रोगादि बाधाओं के आने 5 पर भी उसे नहीं छोड़ना, नियमपूर्वक करना । (५) साकार (सागार) - जिस प्रत्याख्यान में कुछ आगार (छूट या अपवाद) रखा जाय। उन आगारों में से किसी आगार के उपस्थित होने पर त्यागी हुई वस्तु के त्याग का काल
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5 पूरा होने से पहले ही उसे सेवन कर लेने पर भी प्रत्याख्यान भंग नहीं होता। जैसा - नवकारसी, पोरसी आदि। 5
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(६) अनाकार ( अनागार) - जिस प्रत्याख्यान में 'महत्तरागार' आदि कोई आगार न हों। 'अनाभोग' और 'सहसाकार' तो उसमें होते ही हैं। (७) परिमाणकृत - दत्ति, कवल (ग्रास), घर, भिक्षा या भोज्यद्रव्यों की मर्यादा
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5 करना। (८) निरवशेष- अशन, पान, खादिम और स्वादिम, इन चारों प्रकार के आहार का सर्वथा प्रत्याख्यान-त्याग करना। (९) संकेतप्रत्याख्यान - अंगूठा, मुट्ठी, गाँठ आदि किसी भी वस्तु के संकेत को लेकर 5 किया जाने वाला प्रत्याख्यान । (१०) अद्धाप्रत्याख्यान - अद्धा अर्थात् काल विशेष को नियत करके जो प्रत्याख्यान किया जाता है। जैसे-पोरिसी, दो पोरिसी, मास, अर्द्ध-मास आदि । श्रावक के दिग्व्रत आदि तीन गुणव्रत और 卐 सामायिक आदि चार शिक्षाव्रत ये सात देशान्तर गुण प्रत्याख्यान हैं।
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अपश्चिम - मारणान्तिक-संलेखना - जोषणा - आराधना की व्याख्या - अपश्चिम अर्थात् जिसके पीछे कोई संलेखनादि कार्य करना शेष नहीं, ऐसी अन्तिम मारणान्तिक ( आयुष्यसमाप्ति के अन्त - मरणकाल में) की जाने 5 वाली शरीर और कषाय आदि को कृश करने वाली तपस्याविशेष 'अपश्चिम - मारणान्तिक संलेखना है। उसकी जोषणा - स्वीकार करने की आराधना आयुः समाप्ति तक जाती है । अन्तिम समय में यह सबके लिए फ अवश्यकरणीय है। (वृत्ति, पत्रांक २९७)
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Elaboration-Mool-guna-mool means root and guna means virtues.
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The virtues (complete abstention from violence, etc.) that are like roots of the tree of conduct. Uttar-guna-the auxiliary virtues that are like 5 branches of the tree of conduct (detailed as following ). Sarva-mool-guna 5 pratyakhyan (complete basic-virtue enhancing renunciation) is meant for Sascetics and Desh-mool-guna pratyakhyan (partial basic-virtue enhancing renunciation) is meant for vow observing shravak (layman).
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Ten Sarva-uttar- guna pratyakhyan (complete basic - virtue enhancing 5 5 renunciation ) ( 1 ) Anagat-pratyakhyan—to advance, under special 5 circumstances (like anticipated impediments in future), the observation of some austerity resolved to be observed in future. (2) Atikrantpratyakhyan-to postpone for future the observation of some austerity for some specific reason (like serving senior and ailing ascetics). (3) Kotisahit-pratyakhyan-where the last day of one abstainment and the
first day of the immediate next abstainment become common (for
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भगवती सूत्र (२)
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Bhagavati Sutra (2)
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