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________________ 9555555555555555555555555555555 वदमाणस्स सुपच्चक्खायं भवति, नो दुपच्चक्खायं भवति। एवं खलु से सुपच्चक्खाई सव्वपाणेहिं जाव सब्यसत्तेहिं 'पच्चक्खाय' इति वयमाणे सच्चं भासं भासति, नो मोसं भासं भासति। __ एवं खलु से सच्चवादी सबपाणेहिं जाव सबसत्तेहिं तिविहं तिविहेणं संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे अकिरिए संवुडे [ एगंतअदंडे ] एगंतपंडिए यावि भवति। से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ जाव सिय दुपच्चक्खायं भवति। [प्र. २ ] भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है कि सभी प्राण यावत् सभी सत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान-उच्चारण करने वाले के कदाचित् सुप्रत्याख्यान और कदाचित् दुष्प्रत्याख्यान होता है ? __ [उ. ] गौतम ! 'मैंने समस्त प्राण यावत् सर्व सत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है', इस प्रकार कहने वाले पुरुष को यदि इस प्रकार यह अभिसमन्वागत का ज्ञान नहीं होता कि 'ये जीव हैं, ये अजीव हैं, ये त्रस हैं, ये स्थावर हैं'; उस पुरुष का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान नहीं होता, किन्तु दुष्प्रत्याख्यान होता है। साथ ही, 'मैंने सभी प्राण यावत् सभी सत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है', इस प्रकार कहने वाला वह दुष्प्रत्याख्यानी पुरुष सत्य भाषा नहीं बोलता; किन्तु मृषा भाषा बोलता है। इस प्रकार वह मृषावादी सर्व प्राण यावत् समस्त सत्त्वों के प्रति तीन करण, तीन योग से असंयत (संयमरहित), अविरत (हिंसादि से अनिवृत्त या विरतिरहित), पापकर्म से अप्रतिहत (नहीं रुका हुआ) और पापकर्म का अप्रत्याख्यानी (जिसने पापकर्म का प्रत्याख्यान-त्याग नहीं किया है), (कायिकी आदि) क्रियाओं से युक्त-(सक्रिय), असंवृत (संवररहित), एकान्तदण्ड (हिंसा) करने वाला एवं एकान्तबाल (अज्ञानी व विरति शून्य) है। 'मैंने सर्व प्राण यावत् सर्व सत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है', यों कहने वाले पुरुष को यह ज्ञात होता है कि 'ये जीव हैं, ये अजीव हैं, ये त्रस हैं, और ये स्थावर हैं', उस (सर्व प्राण, यावत् सर्व सत्त्वों की हिंसा का मैंने त्याग किया है, यों कहने वाले) पुरुष का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है, किन्तु दष्प्रत्याख्यान नहीं है। 'मैंने सर्व प्राण यावत सर्व सत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है. इस प्रकार कहता हुआ वह सुप्रत्याख्यानी सत्य भाषा बोलता है, मुषा भाषा नहीं बोलता, इस प्रकार सुप्रत्याख्यानी सत्यभाषी, सर्व प्राण यावत् सत्त्वों के प्रति तीन करण, तीन योग से संयत, विरत है। (अतीतकालीन) पापकर्मों को (पश्चात्ताप-आत्मनिन्दा से) उसने प्रतिहत (घात) कर रोक दिया है, (अनागत पापों को) प्रत्याख्यान से त्याग दिया है. वह अक्रिय (कर्मबन्ध की कारणभत क्रियाओं से रहित) है, संवृत-(आस्रवद्वारों को रोकने वाला, संवरयुक्त) है, (एकान्त अदण्डरूप है) और एकान्त पण्डित है। इसीलिए, हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि यावत् कदाचित् सुप्रत्याख्यान होता है और कदाचित् दुष्प्रत्याख्यान होता है। __ 1. [Q. 2] Bhante ! Why do you say that a person saying-"I have renounced violence towards all praan (two to four sensed beings; beings)... and so on up to... all sattva (immobile beings; entities)"-is sometimes liable of achieving good renunciation and sometimes bad renunciation ? | सप्तम शतक : द्वितीय उद्देशक (351) Seventh Shatak: Second Lesson 555555555555555)))))))))))) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002903
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhyaprajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2006
Total Pages654
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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