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के विवेचन : आहार चार प्रकार का है-(१) ओज आहार-जन्म के प्रारम्भ में अन्तर्मुहूर्त तक किया जाता है। !
(२) लोम आहार-(श्वासोच्छ्वास द्वारा) जन्म से जीवन के अन्तिम क्षण तक किया जाता है। (३) प्रक्षेप आहार-मुख से (कवल रूप) भोजन काल में किया जाता है। (४) मनोभक्ष्य-मानसिक संकल्प द्वारा ग्रहण किया जाता है।
दो स्थितियों में जीव अनाहारक होता है-(१) अन्तराल गति-मृत्यु के पश्चात् जन्म-स्थान तक जाने के ॐ मध्य का समय। (२) केवली समुद्घात। अन्तराल गति दो प्रकार की है-(१) ऋजु गति, और (२) वक्र गति।।
(१) संसारी जीव जब आयुष्य पूर्ण करके ऋजुगति (सीधी गति दंडाकार) से परभव में उत्पत्ति स्थान में : ॐ चला जाता है, तब परभव-सम्बन्धी आयुष्य के प्रथम समय में ही आहारक होता है, किन्तु जब वक्र (मोड़ । ॐ वाली) विग्रहगति (वक्रगति) से जाता है, तब प्रथम समय में वक्र मार्ग में चलता हुआ वह अनाहारक होता है; ।
इसलिए वह कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होता है। तथा (२) जब एक वक्र (मोड़) लेकर दो
समय में उत्पन्न होता है, तब पहले समय में अनाहारक और द्वितीय समय में आहारक होता है, (३) जब दो । ॐ वक्रों (मोड़ों) से तीन समय में उत्पन्न होता है, तब प्रारम्भ के दो समयों तक अनाहारक रहता है, तीसरे समय में ।
आहारक होता है, और (४) जब तीन वक्र मोड़ लेकर चार समय में उत्पन्न होता है, तब तीन समय तक
अनाहारक और चौथे समय में अवश्य आहारक होता है। तीन मोड़ों का क्रम इस प्रकार होता है-त्रसनाड़ी से - ॐ बाहर विदिशा में रहा हुआ कोई जीव, जब अधोलोक से ऊर्ध्वलोक में त्रसनाड़ी से बाहर की दिशा में जाकर म उत्पन्न होता है, तब वह प्रथम एक समय में विश्रेणी से समश्रेणी में आता है। दूसरे समय में त्रसनाड़ी में प्रविष्ट है
होता है, तृतीय समय में ऊर्ध्वलोक में जाता है और चौथे समय में लोकनाड़ी से बाहर निकलकर उत्पत्ति-स्थान 3 में उत्पन्न होता है। इनमें से पहले के तीन समयों में तीन वक्र समश्रेणी में जाने से हो जाते हैं। जब त्रसनाड़ी से , ॐ निकल कर जीव बाहर विदिशा में ही उत्पन्न हो जाता है तो चार समय में चार वक्र भी हो जाते हैं, पाँचवें समय में
में वह उत्पत्तिस्थान को प्राप्त करता है। ऐसा कई आचार्य कहते हैं। विग्रह गति विग्रह गति होती है। (संलग्न रेखाचित्र से स्पष्ट समझा जा सकेगा)
जो नारकादि त्रस, त्रसजीवों में ही उत्पन्न होता है, उसका गमनागमन त्रसनाड़ी से बाहर नहीं होता, अतएव । वह तीसरे समय में नियमतः आहारक हो जाता है। जैसे-कोई मत्स्यादि भरत क्षेत्र के पूर्व भाग में स्थित है, वह
वहाँ से मरकर ऐरवत क्षेत्र के पश्चिम भाग में नीचे नरक में उत्पन्न होता है, तब एक समय में भरत क्षेत्र के पूर्व , ॐ भाग से पश्चिम भाग में चला जाता है, दूसरे समय में ऐरवत क्षेत्र के पश्चिम भाग में जाता है और तीसरे समय में
में नरक में उत्पन्न होता है। इन तीनों समयों में से प्रथम दो में वह अनाहारक और तीसरे समय में आहारक , होता है। ___ सर्वाल्पाहारता-आहार ग्रहण करने का हेतु शरीर है। उत्पत्ति के प्रथम समय में आहार ग्रहण करने वाला शरीर अल्प होता है, इसलिए उस समय जीव सर्वाल्पाहारी होता है तथा अन्तिम समय में प्रदेशों के संकुचित हो । जाने एवं जीव के शरीर के अल्प अवयवों में स्थित हो जाने के कारण जीव सर्वाल्पाहारी होता है। यह कथन ' अनाभोग निवर्तित (बिना इच्छा के गृहीत) आहार की अपेक्षा से है। (वृत्ति, पत्रांक २८७-२८८)
Elaboration-Intake (ahaar) is of four kinds-(1) Ojahaar (energy intake)-intake at the time of conception of a being lasting one Antarmuhurt (less than forty eight minutes). (2) Loam ahaar (intake through
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भगवती सूत्र (२)
(326)
Bhagavati Sutra (2)
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