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[उ.] गोयमा ! नेरइया एगंतदुक्खं वेयणं वेयंति, आहच्च सायं। । भवणवति-वाणमंतर-जोइस-वेमाणिया एगंतसायं वेदणं वेदेति, आहच्च असायं। पुढविक्काइया जाव # मणुस्सा वेमायाए वेदणं वेति, आहच्च सायमसायं। से तेणटेणं।
[प्र. २ ] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कथन किया जाता है ?
[उ. ] गौतम ! नैरयिक जीव, एकान्तदुःखरूप वेदना वेदते हैं और कदाचित् सातारूप वेदना भी वेदते हैं। भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक एकान्तसाता (सुख) रूप वेदना वेदते हैं, में किन्तु कदाचित् असातारूप वेदना भी वेदते हैं। तथा पृथ्वीकायिक जीवों से लेकर मनुष्यों पर्यन्त विमात्रा
से वेदना वेदते हैं। (अर्थात्) कदाचित् सुख और कदाचित् दुःख वेदते हैं। इसी कारण से, हे गौतम ! उपर्युक्त रूप से कहा गया है।
[Q. 2) Bhante ! Why is it so ?
[Ans.] Gautam ! Infernal beings exclusively suffer pain (asaata) but sometimes experience happiness (saata). Bhavan-pati (abode dwelling), Vanavyantar (interstitial), Jyotishk (stellar) and Vaimanik (celestial ! vehicular) gods exclusively experience happiness but sometimes experience pain. And living beings from earth-bodied ones to humans have diverse experiences (they sometimes suffer happiness and sometimes pain). That is the reason, Gautam, for stating as aforesaid.
विवेचन : प्राचीन भारतीय दर्शनों में सांख्य (योग) और बौद्ध दर्शन एकान्त दुःखवादी दर्शन है। दुःखमेवं सर्व विवेकिनः (पातंजल २/१५) किन्तु जैन दर्शन सापेक्षवादी है, सुख-दुःख दोनों को ही एकान्त सापेक्ष मानता है।
Elaboration—In the ancient Indian philosophies Sankhya (Yoga) philosophy and Buddhist philosophy are based exclusively on sufferance. But Jain philosophy is relativistic as it considers happiness and sorrow to be absolutely relative states. नैरयिकादि का आहार INTAKE OF INFERNAL AND OTHER BEINGS
१२. [प्र.] नेरइया णं भंते ! जे पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति ते किं आयसरीरक्खेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति ? अणंतरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति ? परंपरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति ?
[उ. ] गोयमा ! आयसरीरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति, नो अणंतरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति, नो परंपरखेत्तोगाढे।
१३. जहा नेरइया तहा जाव वेमाणियाणं दंडओ।
१२. [प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीव, जिन पुद्गलों का आत्मा (अपने) द्वारा ग्रहण करके आहार करते हैं, क्या वे आत्म-शरीर क्षेत्रावगाढ़ (जिन आकाशप्रदेशों में अपना शरीर है, उन्हीं प्रदेशों में
नागम
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छठा शतक : दशम उद्देशक
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Sixth Shatak: Tenth Lesson
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