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________________ महर्द्धिक देवों की विकुर्वणा SELF-MUTATION BY GODS WITH GREAT OPULENCE २. [प्र. ] देवे णं भंते ! महिड्डीए जाव महाणुभागे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एगवणं एगरूवं विउवित्तए ? [उ. ] गोयमा : नो इणद्वेसमटे। २. [प्र. ] भगवन् ! क्या महर्द्धिक यावत् महानुभाग देव बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना एक वर्ण वाले और एक रूप (एक आकार वाले) (स्वशरीरादि) की विकुर्वणा करने में समर्थ है ? [उ. ] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। 2.[Q.] Bhante ! Is a god with great opulence... and so on up to... great influence capable of self-mutation (vikurvana) into a body of single colour and single form without acquiring external matter? [Ans.] Gautam ! This is not possible. ३. [प्र. ] देवे णं भंते ! बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू ? [उ. ] हंता, पभू। ३. [प्र. ] भगवन् ! क्या वह देव बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके (उपर्युक्त रूप से) विकुर्वणा करने में समर्थ है ? [उ. ] हाँ गौतम ! हाँ, (वह ऐसा करने में) समर्थ है। 3. [Q.] Bhante ! Is a he capable of the said self-mutation (vikurvana) by acquiring external matter? [Ans.] Yes, Gautam ! He is capable of doing that. ४. [प्र.] से णं भंते ! किं इहगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वति, तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुब्बति, अन्नत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वति ? _ [उ. ] गोयमा ! नो इहगते पोग्गले परियाइत्ता विउव्वति, तत्थगते पोग्गले परियाइत्ता विकुव्वति, नो अन्नत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वति। ४. [प्र. ] भगवन् ! क्या वह देव इहगत (यहाँ मनुष्यलोक या पार्श्ववर्ती क्षेत्र में रहे हुए) पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है अथवा तत्रगत (वहाँ-देवलोक में देव के पार्श्ववर्ती क्षेत्र रहे हुए) पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है या अन्यत्रगत (किसी अन्य स्थान में रहे हुए) पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है? [उ. ] गौतम ! वह देव, यहाँ रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा नहीं करता, वह वहाँ (देवलोक में रहे हुए तथा जहाँ विकुर्वणा करता है वहाँ) के पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है, किन्तु अन्यत्र रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा नहीं करता। | छठा शतक : नवम उद्देशक (307) Sixth Shatak: Ninth Lesson Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002903
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhyaprajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2006
Total Pages654
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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