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[ उ. ] गोयमा ! अत्थेगइए तत्थगएचेव आहारेज्ज वा, परिणामेज्ज वा, सरीरं वा बंधेज्ज, अत्थेगइए तओ पडिनियत्तइ, पडिनियत्तित्ता इहमागच्छइ, आगच्छित्ता दोच्चं पि मारणंतियसमुग्धाएणं समोहणइ, समोहणित्ता मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागमेत्तं वा संखेज्जइभागमेत्तं वा, वालग्गं वा, वालग्गपुहुत्तं वा एवं लिक्खं जूयं जवं अंगुलं जाव जोयणकोडिं वा, जोयणकोडाकोडिं वा, संखेज्जेसु वा असंखेज्जे वा जोयणसहस्सेसु, लोगंते वा एगपएसियं सेटिं मोत्तूण असंखेज्जेसु पुढविकाइयावास सहसहस्सेसु अन्त्रयरंसि पुढविकाइयावासंसि पुढविकाइयत्ताए उववज्जेत्ता तओ पच्छा आहारेज्ज वा, परिणामेज्ज वा, सरीरं वा बंधेज्जा ।
[ ३ ] जहा पुरत्थिमेणं मंदरस्स पव्वयस्स आलावगो भणिओ एवं दाहिणेणं, पच्चत्थिमेणं, उत्तरेणं, उड्ढे, अहे ।
[प्र. २ ] भगवन् ! क्या पृथ्वीकायिक जीव, वहाँ जाकर ही आहार करता है, आहार को . परिणमाता है और शरीर बाँधता है ?
[ उ. ] गौतम ! कोई जीव, वहाँ जाकर ही आहार करता है। उस आहार को परिणमाता है और शरीर बाँधता है; और कोई जीव वहाँ जाकर वापस लौटता है, वापस लौटकर यहाँ आता है; यहाँ आकर फिर दूसरी बार मारणान्तिक समुद्घात से समवहत होता है। समवहत होकर मेरु पर्वत के पूर्व में अंगुल के असंख्येय भागमात्र, या संख्येय भागमात्र, या बालाग्र, अथवा बालाग्र - पृथक्त्व (दो से नौ तक बालाग्र), इसी तरह लीख, जूँ, यव, अंगुल यावत् कोटि योजन, कोटाकोटि योजन, संख्येय हजार योजन और असंख्येय हजार योजन में, अथवा एक प्रदेशात्मक श्रेणी को छोड़कर लोकान्त में पृथ्वीकाय के असंख्य लाख आवासों में से किसी आवास में पृथ्वीकायिक रूप से उत्पन्न होता है और उसके पश्चात् आहार करता है, उस आहार को परिणमाता है और शरीर बाँधता है।
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[ ३ ] जिस प्रकार मेरु पर्वत की पूर्व दिशा के विषय में कथन किया गया है, उसी प्रकार से दक्षिण, पश्चिम, उत्तर, ऊर्ध्व और अधोदिशा के सम्बन्ध में कहना चाहिए।
[Q. 2] Bhante ! On reaching there does this earth-bodied being have food intake, does it transform that food and does it take a body?
[Ans.] Gautam ! On reaching there some soul (jiva) has food intake, it transforms that food and it takes a body. While some other soul goes there, returns and once again undergoes maranantik samudghat. After this it is born as an earth-bodied being in any one of the innumerable million abodes of earth-bodied beings to the east of Meru mountain located at a distance of innumerable fraction of an Angul, or countable fraction of an Angul, or Baalaagra (hair-tip), or Baalaagra prithakatva (two to nine Baalaagras ), or Leekh, or Joon, or Yava, or Angul... and so on up to... billion Yojans, or billion-billion Yojans or at Lokaant except for
Bhagavati Sutra (2)
भगवती सूत्र (२)
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