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[2] Beings with underdeveloped faculty of intake (ahaar-aparyapti) follow the pattern of anahaarak jivas (beings without intake). For jivas. with underdeveloped faculties of body, sense organs and respiration (sharira-aparyapti, indriya-aparyapti, and shvasochhavas-aparyapti), leaving aside jiva (in general) and one-sensed beings, three alternatives should be stated. For underdeveloped infernal, divine and human beings six alternatives should be stated. For beings with underdeveloped faculties of speech and mind (bhasha-paryapti and manah-paryapti) three alternatives (bhang) should be stated including jiva (in general). In this context six alternatives should be stated for infernal, divine and human beings.
विवेचन : १४. पर्याप्ति द्वार - जीवपद और एकेन्द्रिय पदों में आहार-पर्याप्ति आदि को प्राप्त तथा आहारादि की अपर्याप्त से मुक्त होकर आहारादि-पर्याप्ति को प्राप्त होने वाले जीव बहुत हैं, इसलिए इनमें 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश' यह एक ही भंग होता है; शेष जीवों में तीन भंग पाये जाते हैं। यद्यपि भाषा पर्याप्ति और मनःपर्याप्ति, ये दोनों पर्याप्तियाँ भिन्न-भिन्न हैं, तथापि बहुश्रुत महापुरुषों द्वारा सम्मत होने से ये दोनों पर्याप्तियाँ एकरूप मान ली गई हैं। अतएव भाषा - मनः-पर्याप्ति द्वारा पर्याप्त जीवों का कथन संज्ञी जीवों की तरह करना चाहिए। इन सब पदों में तीन भंग कहने चाहिए । यहाँ केवल पंचेन्द्रिय पद ही लेना चाहिए। आहार अपर्याप्ति दण्डक में जीवपद और पृथ्वीकायिक आदि पदों में 'बहुत सप्रदेश - बहुत अप्रदेश' यह एक ही भंग कहना चाहिए। क्योंकि आहार - पर्याप्ति से रहित विग्रहगति समापन बहुत जीव निरन्तर पाये जाते हैं। शेष जीवों में पूर्वोक्त ६ भंग होते हैं, क्योंकि शेष जीवों में आहार -पर्याप्ति रहित जीव थोड़े पाये जाते हैं। शरीर - अपर्याप्त द्वार में जीवों और एकेन्द्रियों में एक भंग एवं शेष जीवों में तीन भंग कहने चाहिए, क्योंकि शरीरादि से अपर्याप्त जीव कालादेश की अपेक्षा सदा सप्रदेश ही पाये जाते हैं, अप्रदेश तो कदाचित् एकादि पाये जाते हैं। नैरयिक, देव और मनुष्यों में छह भंग कहने चाहिए। भाषा और मन की पर्याप्ति से अपर्याप्त जीव वे हैं, जिनको जन्म भाषा और मन की योग्यता तो हो, किन्तु उसकी सिद्धि न हुई । ऐसे जीव पंचेन्द्रिय ही होते हैं। अतः इन जीवों में और पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में भाषा व मन- अपर्याप्ति को प्राप्त बहुत जीव होते हैं, और इसकी अपर्याप्ति को प्राप्त होते हुए एकादि जीव ही पाये जाते हैं। इसलिए उनमें पूर्वोक्त तीन भंग घटित होते हैं। नैरयिकादि में भाषामनः अपर्याप्तकों की अल्पतरता होने से उनमें एकादि सप्रदेश और अप्रदेश पाये जाने से पूर्वोक्त ६ भंग होते हैं। इन पर्याप्ति - अपर्याप्ति के दण्डकों में सिद्धपद नहीं कहना चाहिए, क्योंकि सिद्धों में पर्याप्ति और अपर्याप्त नहीं होती । [वृत्ति, पत्रांक २६१ से २६६ तक, भगवती सूत्र (हिन्दी विवेचनयुक्त) भा. २, पृष्ठ ९८४ से ९९५ तक ]
Elaboration—(14) Paryapti dvar - Among jiva (in general) and onesensed beings there is a large number of beings having attained and in the process of attaining the said full developments, therefore only one state is applicable-many sapradesh and many apradesh (without sections). For the remaining jivas three alternatives are applicable. Although bhasha-paryapti and manah-paryapti are different they are considered as one by great scholarly sages. Therefore, jivas with fully छठा शतक : चतुर्थ उद्देशक
Sixth Shatak: Fourth Lesson
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