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विवेचन : ९. ज्ञान द्वार-मति आदि सामान्य ज्ञान को औधिक ज्ञान कहते हैं । औधिक (सामान्य) ज्ञान में फ
पदों के तीन भंग होते हैं। यथा-औधिकज्ञानी, मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी सदा अवस्थित होने से वे सप्रदेश हैं, यह
तथा मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में एकवचन और बहुवचन को लेकर दो दण्डक होते हैं। दूसरे दण्डक में जीवादि 5
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एक भंग, मिथ्याज्ञान से निवृत्त होकर मात्र मत्यादिज्ञान को प्राप्त होने वाले एवं श्रुत- अज्ञान से निवृत्त होकर
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श्रुतज्ञान को प्राप्त होने वाले एकादि जीव पाये जाते हैं, इसलिए, तथा मति- अज्ञान से निवृत्त होकर मतिज्ञान को 5 प्राप्त होने वाले 'बहुत सप्रदेश और एकादि अप्रदेश' यह दूसरा भंग, तथा 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश' यह तीसरा भंग होता है। विकलेन्द्रियों में सास्वादन सम्यक्त्व होने से मत्यादिज्ञान वाले एकादि जीव पाये जाते हैं, इसलिए उनमें ६ भंग घटित हो जाते हैं। यहाँ पृथ्वीकायादि जीव तथा सिद्धपद का कथन नहीं करना चाहिए, क्योंकि उनमें मत्यादिज्ञान नहीं होते। इसी प्रकार अवधिज्ञान आदि में भी तीन भंग सम्भव हैं । विशेषता यह है कि अवधिज्ञान के एकवचन बहुवचन - दण्डकद्वय में एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और सिद्धों का कथन नहीं करना चाहिए। मनः पर्यवज्ञान के उक्त दण्डकद्वय में जीव और मनुष्य का ही कथन करना चाहिए, क्योंकि इनके सिवाय फ्र अन्यों को मनः पर्यवज्ञान नहीं होता । केवलज्ञान के उक्त दोनों दण्डकों में भी मनुष्य और सिद्ध का ही कथन 5 करना चाहिए, क्योंकि दूसरे जीवों को केवलज्ञान नहीं होता ।
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मति आदि सामान्य ( औधिक) अज्ञान, मति - अज्ञान और श्रुत- अज्ञान, इनमें जीवादि पदों में तीन भंग फ घटित हो जाते हैं, तथा - (१) ये सदा अवस्थित होते हैं, इसलिए 'सभी सप्रदेश' यह प्रथम भंग हुआ, (२-३) अवस्थित के सिवाय जब दूसरे जीव, ज्ञान को छोड़कर मति- अज्ञानादि को प्राप्त होते हैं, तब उनके एकादि का सम्भव होने से दूसरा और तीसरा भंग भी घटित हो जाता है। एकेन्द्रिय जीवों में 'बहुत सप्रदेश और बहुत प्रदेश' यह एक ही भंग पाया जाता है। सिद्धों में तीनों अज्ञान असम्भव होने से उनमें अज्ञानों का कथन नहीं करना चाहिए। विभंगज्ञान में जीवादि पदों में मति - अज्ञानादि की तरह तीन भंग कहने चाहिए। इसमें एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और सिद्धों का कथन नहीं करना चाहिए।
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Elaboration-(9) Jnana dvar-Aughik jnana means knowledge in general. There are two categories of singular and plural for jnana (in general) and Mati and Shrut jnana. For jiva (in general) there are three alternatives in the plural category-(1) As beings with aughik-jnana, mati-jnana and shrut-jnana always exist they are sapradesh; there are one or more beings progressing from states of ignorance, mati-ajnana and shrut-ajnana to state of knowledge, mati-jnana and shrut-jnana respectively, involving two alternatives-(2) many sapradesh and one apradesh and (3) many sapradesh and many apradesh. As vikalendriyas have saasvadan samyaktva (fleeting taste of righteousness), one or more beings with jnana including the right one are available among them; for this reason there are six alternatives (bhang) for them. Here one-sensed beings including earth-bodied beings and Siddhas are to be excluded 卐 because they are devoid of the said jnanas. In the same way, for avadhijnana and other higher jnanas there are three alternatives each. The difference is that in the two categories of beings with avadhi-jnana one to छठा शतक : चतुर्थ उद्देशक
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Sixth Shatak: Fourth Lesson 卐
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