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________________ बाँधते, जबकि पिछले दोनों वेदनीय कर्म बाँधते हैं। इसीलिए कहा गया है कि अभाषक जीव ज्ञानावरणीय और वेदनीय कर्म भजना से बाँधते हैं। भाषक जीव (सयोगीकेवली गुणस्थान के अन्तिम समय तक के भाषक भी ) वेदनीय कर्म बाँधते हैं। (१३) परित्त द्वार - एक शरीर में एक जीव हो उसे 'परित्त' अथवा अल्प-सीमित संसार वाले को भी 'परित्त' जीव कहते हैं । परित्त के दो प्रकार वीतराग-परित्त और सराग परित्त । वीतराग परित्त ज्ञानावरणीय कर्म नहीं बाँधता, सराग परित्त बाँधता है। इसीलिए कहा गया है कि परित्त जीव भजना से ज्ञानावरणीय कर्म को बाँधता है। जो जीव अनन्त जीवों के साथ एक शरीर में रहता है, ऐसे साधारण काय वाले जीव को 'अपरित्त' कहते हैं, अथवा अनन्त संसारी को 'अपरित्त' कहते हैं। दोनों प्रकार के अपरित जीव ज्ञानावरणीय कर्म बाँधते हैं। नोपरित्त-नोअपरित्त अर्थात् सिद्ध जीव, ज्ञानावरणीयादि अष्ट कर्म नहीं बाँधते । परित्त और अपरित जीव आयुष्य बन्धकाल में आयुष्य बाँधते हैं, किन्तु दूसरे समय में नहीं, इसीलिए कहा गया है- परित्त और अपरित्त भजना से आयुष्य बाँधते हैं। (१४) ज्ञान द्वार - प्रथम के चारों ज्ञान वाले वीतराग अवस्था में ज्ञानावरणीय कर्म नहीं बाँधते, सराग अवस्था में बाँधते हैं। इसीलिए इन चारों के ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध के विषय में भजना कही गई है। आभिनिबोधिक आदि चार ज्ञानों वाले वेदनीय कर्म को बाँधते हैं, क्योंकि छद्मस्थ वीतराग भी वेदनीय कर्म के बन्धक होते हैं । केवलज्ञानी वेदनीय कर्म को भजना से बाँधते हैं, क्योंकि सयोगीकेवली वेदनीय के बन्धक तथा अयोगकेवली और सिद्ध वेदनीय के अबन्धक होते हैं। (१५) योग द्वार - मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी, ये तीनों सयोगी जब ११वें, १२वें, १३वें गुणस्थानवर्ती होते हैं, तब ज्ञानावरणीय कर्म को नहीं बाँधते, इनके अतिरिक्त अन्य सभी सयोगी जीव ज्ञानावरणीय कर्म बाँधते हैं। इसीलिए कहा गया है कि सयोगी जीव भजना से ज्ञानावरणीय कर्म बाँधते हैं। अयोगी के दो भेद - अयोगीकेवली और सिद्ध । ये दोनों ज्ञानावरणीय, वेदनीयादि कर्म नहीं बाँधते, किन्तु सभी सयोगी जीव वेदनीय कर्म के बन्धक होते हैं, क्योंकि सयोगीकेवली गुणस्थान तक सातावेदनीय का बन्ध होता है। ५ (१६) उपयोग द्वार - सयोगी जीव और अयोगी जीव, इन दोनों के साकार (ज्ञान) और अनाकार (दर्शन) ये दोनों उपयोग होते हैं। इन दोनों उपयोगों में वर्तमान सयोगी जीव, ज्ञानावरणीयादि आठों कर्मप्रकृतियों को यथायोग्य बाँधता है और अयोगी जीव नहीं बाँधता, क्योंकि अयोगी जीव आठों कर्मप्रकृतियों का अबन्धक होता है। इसीलिए साकारोपयोगी और निराकारोपयोगी दोनों में अष्टकर्मबन्ध की भजना कही है। (१७) आहारक द्वार - आहारक दो प्रकार के हैं- वीतरागी और सरागी । वीतरागी आहारक ज्ञानावरणीय कर्म नहीं बाँधते, जबकि सरागी आहारक बाँधते हैं। इसी प्रकार अनाहारक के चार भेद होते हैं - ( 9 ) विग्रहगति समापन्न, (२) समुद्घातप्राप्त केवली, (३) अयोगीकेवली, और (४) सिद्ध । इनमें से प्रथम बाँधते हैं, शेष तीनों ज्ञानावरणीय कर्म को नहीं बाँधते । इसलिए कहा गया है-आहारक की तरह अनाहारक भी ज्ञानावरणीय कर्म को भजना से बाँधते हैं। आहारक जीव (सयोगीकेवली तक) वेदनीय कर्म को बाँधते हैं, जबकि अनाहारकों में से प्रथम व द्वितीय ये दोनों अनाहारक वेदनीय कर्म को बाँधते हैं, अयोगीकेवली और सिद्ध अनाहारक इसे नहीं बाँधते । इसीलिए कहा है कि अनाहारक जीव वेदनीय कर्म को भजना से बाँधते हैं। सभी प्रकार के अनाहारक जीव आयुष्य कर्म के अबन्धक हैं, जबकि आहारक जीव आयुष्य बन्धकाल में आयुष्य बाँधते हैं, दूसरे समय में नहीं बाँधते । छटा शतक तृतीय उद्देशक (213) Jain Education International Sixth Shatak: Third Lesson ததததததததததததததததமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிததிதி For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002903
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhyaprajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2006
Total Pages654
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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