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फ्र
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maximum is a third of Purva-koti added to thirty three Sagaropam
फ ( a metaphoric unit of time ). Its karma - nishek kaal (effective duration) is फ (thirty three Sagaropam) and the remaining is the duration of its 5 dormant state (abaadha kaal ).
[6] The minimum duration of bondage of Naam (form determining) 5 and Gotra (status determining) karmas is eight Antar-muhurts and maximum is twenty Kodakodi Sagaropam (a metaphoric unit of time). The duration of their dormant state is two thousand years. Subtracting the dormant period from the total gives the karma-nishek kaal (effective duration).
[7] What has been stated about Jnanavaraniya karma should be repeated for Antaraya (energy hindering) karma.
विवेचन : चतुर्थद्वार - बन्धस्थिति - कर्मबन्ध होने के बाद वह जितने काल तक रहता है, उसे बन्धस्थिति कहते हैं। अबाधाकाल-कर्म का उदय न होना 'अबाधा' कहलाता है। जिस समय कर्म का बंध हुआ उस समय से लेकर जब तक उस कर्म का उदय नहीं होता, तब तक के काल को अबाधाकाल कहते हैं। कर्मस्थिति - कर्मनिषेक काल : कर्म का वेदन काल भोगने का काल कर्मनिषेक काल है। प्रत्येक कर्म बँधने के पश्चात् उस कर्म के उदय में आने पर अर्थात् उस कर्म का अबाधाकाल पूरा होने पर कर्म को वेदन करने के प्रथम समय से लेकर बँधे हुए कर्मदलिकों में से भोगने योग्य कर्मदलिकों की एक प्रकार की रचना होती है। उसे कर्मनिषेक कहते हैं । प्रथम समय में बहुत अधिक कर्मनिषेक होता है, द्वितीय तृतीय समय में उत्तरोत्तर विशेष हीन होता जाता है। निषेक तब तक होता रहता है, जब तक वह बँधा हुआ कर्म आत्मा के साथ बँधा रहता है।
भगवती सूत्र ( २ )
3555555 5 5 5 5 5 55555 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 555 5555 5555544545542
कर्म की स्थिति : दो प्रकार की एक तो कर्म के रूप में रहना, और दूसरे, अनुभव, (वेदन) योग्य कर्म रूप में रहना । कर्म जब से अनुभव (वेदन) में आता है, उस समय की स्थिति को अनुभव योग्य कर्मस्थिति जानना । अर्थात् कर्म की कुल स्थिति में से अनुदय का काल (अबाधाकाल) बाद करने पर जो स्थिति शेष रहती है, उसे अनुभव योग्य कर्मस्थिति समझना चाहिए। कर्म की स्थिति जितने क्रोड़ाक्रोड़ी सागरोपम की होती है, उतने सौ वर्ष तक वह कर्म, अनुभव (वेदन) में आये बिना आत्मा के साथ अकिंचित्कर (अप्रभावी अनुदय अवस्था में) 5 रहता है। जैसे - मोहनीय कर्म की ७० क्रोडाक्रोड़ी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है, उसमें से ७० सौ (७,००० ) वर्ष तक तो वह कर्म यों ही अकिंचित्कर पड़ा रहता है। वही कर्म का अबाधाकाल है। उसके पश्चात् वह मोहनीय कर्म उदय में आता है, तो ७ हजार वर्ष कम ७० क्रोडीक्रोड़ी सागरोपम तक अपना फल भुगताता रहता 5 है, उस काल को कर्म निषेककाल कहते हैं ।
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वेदनीय कर्म की स्थिति - जिस वेदनीय कर्म के बन्ध में कषाय कारण नहीं होता, केवल योग निमित्त होते हैं, फ्र वह वेदनीय कर्म बन्ध की अपेक्षा दो समय की स्थिति वाला है। वह प्रथम समय में बँधता है, दूसरे समय में वेदा
जाता है; किन्तु सकषाय बन्ध की स्थिति की अपेक्षा वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति १२ मुहूर्त्त की होती है । ( पंचसंग्रह, गा. ३१-३२, पृष्ठ १७६ (द्वार ५ से १९)
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Bhagavati Sutra (2)
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