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5 [प्र. २ ] से केणटेणं ? 3 [उ. ] गोयमा ! इरियावहियाबंधयस्स कम्मोवचए साईए सपज्जवसिए। भवसिद्धियस्स कम्मोवचए अणादीए सपज्जवसिए। अभवसिद्धियस्स कम्मोवचए अणाईए अपज्जवसिए। से तेणटेणं।
[प्र. २ ] भगवन् ! यह किस कारण से कहा जाता है ?
[उ. ] गौतम ! (१) ईर्यापथिक-बन्ध की अपेक्षा कर्मोपचय सादि-सान्त है, (२) भवसिद्धिक जीवों ॐ का कर्मोपचय अनादि-सान्त है, (३) अभवसिद्धिक जीवों का कर्मोपचय अनादि-अनन्त है। इसी कारण म से, हे गौतम ! उपर्युक्त रूप से कहा गया है।
[Q. 2] Bhante ! Why is it so ?
[Ans.] Gautam ! (1) In context of Iryapathik-bandh (bondage due to passionless association) acquisition (upachaya) of karmas is with a beginning and with an end, (2) Acquisition of karmas by beings destined to be liberated (bhavasiddhik) is without a beginning and with an end, (3) Acquisition of karmas by beings not destined to be liberated (abhavasiddhik) is without a beginning and without an end. That is why, Gautam ! The aforesaid statement.
विवेचन : ईर्यापथिक बन्ध का स्वरूप ? कर्मबन्ध के मुख्य दो कारण हैं (१) क्रोधादि कषाय, और (२) योग : ॐ = मन-वचन-काया की प्रवृत्ति। जिन जीवों का कषाय सर्वथा उपशान्त या क्षीण नहीं हुआ है, उनको जो
कर्मबन्ध होता है, वह सब साम्परायिक (काषायिक) कहलाता है, और जिन जीवों का कषाय सर्वथा उपशान्त या क्षीण हो चुका है, उनकी हलन-चलन आदि सारी प्रवृत्तियाँ यौगिक (मन, वचन, कायायोग से जनित) होती हैं। कषायरहित योगजन्य कर्म को ही ईर्यापथिक कर्म कहते हैं। उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगीकेवली को ईर्यापथिक कर्मबन्ध होता है। यह कर्म इस अवस्था से पहले नहीं बँधता, इस अवस्था की अपेक्षा से इस कर्म की आदि है, अतएव इसका सादित्व है, किन्तु सिद्ध अयोगी (आत्मा की अक्रिय) अवस्था में अथवा उपशमश्रेणी से 5 गिरने पर इस कर्म का बन्ध नहीं होता, इस कर्म का अन्त हो जाता है, इस दृष्टि से इसका सान्तत्व है। भवसिद्धिक जीवों की अपेक्षा से कर्मोपचय अनादि-सान्त है। भव्यजीव को भव्यजीवों के सामूहिक दृष्टि
कर्मबन्ध की कोई आदि नहीं है प्रवाहरूप से उनके कर्मोपचय अनादि हैं, किन्तु एक न एक दिन वे कर्मों का के सर्वथा अन्त करके सिद्धि (मुक्ति) प्राप्त करेंगे, इस अपेक्षा से उनका कर्मोपचय सान्त है।
अभवसिद्धिक अभव्य जीवों की अपेक्षा से कर्मोपचय अनादि-अनन्त है। जिनके कर्मों का कभी अन्त नहीं होगा, ऐसे अभव्य-जीवों के कर्मोपचय की प्रवाहरूप से न तो आदि है, और न अन्त है। चौथा भंग शून्य है। म (वृत्ति पत्रांक २५५)
Elaboration-Karmic bondage-There are two basic causes of karmic bondage-(1) passions including anger and (2) association (yoga) or : mental, vocal and physical indulgence. The karmic bondage of beings i whose passions have not been completely pacified or destroyed is called 15 saamparayik or kashayik (caused by passions). All activities and movements of living beings whose passions have been completely pacified | छठा शतक : तृतीय उद्देशक
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Sixth Shatak: Third Lesson 15岁男%%%%%%%%步步步步步牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙%%%%%%%因
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