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ॐ विशेष शब्दों की व्याख्या-गाढीकयाई = जो कर्म डोरी से मजबूत बाँधी हुई सुइयों के ढेर के समान आत्म-5 के प्रदेशों के साथ गाढ बँधे हुए हैं। चिक्कणीकयाई = मिट्टी के चिकने बर्तन के समान सूक्ष्म-कर्मस्कन्धों के रस के .
साथ परस्परगाढ बन्ध वाले, दुर्भेद्य कर्मों को चिकने किये हुए कर्म कहते हैं। सिलिट्ठीकयाई = रस्सी से ॐ दृढ़तापूर्वक बाँधकर आग में तपाई हुई सुइयों का ढेर जैसे परस्पर चिपक जाता है, वे सुइयाँ एकमेक हो जाती +
हैं, उसी तरह जो कर्म परस्पर चिपक गये हैं, ऐसे निधत्त कर्म। खिलीभूयाई = खिलीभूत कर्म, वे निकाचित कर्म होते हैं, जो बिना भोगे, किसी भी अन्य उपाय से क्षीण नहीं होते। (वृत्ति पत्रांक २५१) ___ आचार्य उमास्वाति ने प्रशस्त अध्यवसायों को आधार मानकर निर्जरा की तरतमता बताते हुए कहा है, मिथ्यात्वी से सम्यग्दृष्टि को असंख्य गुनी निर्जरा होती है। उससे श्रावक को, श्रावक संयत के क्रमशः क्षीणमोह, जिन के असंख्येय गुनी निर्जरा होती है। TECHNICAL TERMS
Gaadhikayaim or gaadhikrit (firmly adhered)—the karmas that are tightly tied to soul space-points like a bunch of needles strongly tied with a thread. Chikkanikayaim or chikkanikrit (smoothly fixed)—hard to penetrate karmas that are smoothly fixed due to their intensity just like an impervious glazed earthen pot. Silitthikayaim or shlisht-krit (assimilated)-partially intransigent or nidhatt karmas like a bunch of needles heated in fire and partially fused. Khilibhuyaim or khilibhoot (fully fused)—these are the intransigent or nikachit karmas that cannot be destroyed without fruition and suffering. (Vritti leaf 251)
Assuming noble endeavour to be the basis of purification, Acharya Umasvati has given the progression of shedding of karmas. According to him the shedding by a righteous layman is innumerable times more than that by an unrighteous person; that by a Shravak (layman observing the prescribed code of conduct) is innumerable times more than that by
righteous layman; and so on up to the absolutely detached one (Jina). म करण की अपेक्षा साता-असाता-वेदन EXPERIENCE IN CONTEXT OF RARAN
५. [प्र. ] कइविहे णं भंते ! करणे पण्णत्ते ? [उ. ] गोयमा ! चउबिहे करणे पण्णत्ते, तं जहा-मणकरणे, वइकरणे, कायकरणे, कम्मकरणे।
५. [प्र. ] भगवन् ! करण कितने प्रकार के हैं ? A [उ. ] गौतम ! करण (जीव का वीर्य या प्रवृत्ति) चार प्रकार के हैं। यथा-मनकरण, वचनकरण, । कायकरण और कर्मकरण।
विशेष : जिनसे क्रिया की जाये, वह करण है। प्रवृत्ति के हेतुभूत जीव की 'वीर्य' शक्ति को करण कहते हैं। वेदना का मुख्य कारण करण ही है।
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छठा शतक : प्रथम उद्देशक
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Sixth Shatak: First Lesson
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