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F [३] आधाकर्म के (पूर्वोक्त) दोनों आलापक के अनुसार ही क्रीतकृत (साधु के लिए खरीदकर + लाया हुआ), स्थापित (साधु के लिए स्थापित करके रखा हुआ), रचितक (साधु के लिए मोदक के रूप में 5
बाँधा हुआ) (औद्देशिक दोष का भेदरूप), कान्तारभक्त (अटवी में भिक्षुकों के निर्वाह के लिए तैयार 卐 किया हुआ आहार), दुर्भिक्षभक्त (दुष्काल के समय भिक्षुओं के लिए तैयार किया हुआ आहार), 5 5 वर्दलिकाभक्त (आकाश में बादल छाये हों, घनघोर वर्षा हो रही हो, ऐसे समय में भिक्षुओं के लिए तैयार
किया हुआ आहार), ग्लानभक्त-(रुग्ण के लिए बनाया हुआ आहार), शय्यातरपिण्ड (जिसकी आज्ञा से 卐 मकान में ठहरे हैं, उस व्यक्ति के यहाँ से आहार लेना), राजपिण्ड (राजा के लिए तैयार किया गया
आहार) इन सब दोषों से युक्त आहारादि के विषय में (आधाकर्म-सम्बन्धी आलापक के समान ही) के प्रत्येक के दो-दो आलापक कहने चाहिए।
15. [1] "Adhakarma (food specifically prepared for an ascetic) is faultless”, if an ascetic believes this and if he dies without censuring
(and duly atoning) and doing critical review (pratikraman), he is said to Hi have not accomplished spiritual worship (aradhana).
[2] If he (the ascetic with aforesaid belief) dies after duly censuring (the fault of adhakarma) and doing critical review (pratikraman), he is said to have accomplished spiritual worship (aradhana).
[3] The two aforesaid statements regarding adhakarma should also i be repeated for food with each of the following faults--Kreetakrit
(purchased for shramans), Sthapit (food kept apart for the ascetic),
Rachitak (made into balls or re-cooked specifically for an ascetic; a sub5 type of adhakarma), Kantarabhakt (emergency food packed and taken 4i along while crossing a difficult terrain), Durbhiksh-bhakt (food prepared 4 for distributing to beggars and destitute during a drought), 41
Vardalikabhakt (food prepared and kept for distributing during periods
of heavy rain, floods and other such calamities), Glaanabhakt (food 4 meant for the sick), Shayyatar-pind (food offered by the person who has ॐ provided place of stay) and Raj-pind (food from the royal kitchen).
१६. [१] ‘आहाकम्मं णं अणवज्जे' त्ति बहुजणमझे भासित्ता सयमेव परि जित्ता भवति, से णं तस्स ठाणस्स जाव अस्थि तस्त आराहणा।[ २ ] एयं पि तह चेव जाव रायपिंडं।
१७. 'आहाकम्मं णं अणवज्जे' त्ति सयं अन्नमन्नस्स अणुप्पदावेत्ता भवति, से णं तस्स० एवं तह चेव जाव रायपिंडं।
१८. 'आहाकम्मं णं अणवज्जे' त्ति बहुजणमझे पन्नवइत्ता भवति, से णं तस्स जाव अस्थि आराहणा ॐ जाव रायपिंडं।
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| भगवती सूत्र (२)
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Bhagavati Sutra (2)
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