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विवेचन : नैरयिकों की विकुर्वणा के सम्बन्ध में-जीवाभिगमसूत्र के आलापक का सार इस प्रकार है-रत्नप्रभा आदि नरकों में नैरयिक जीव एकरूप की भी विकुर्वणा करने में समर्थ है, बहुत से रूपों की भी। एकरूप की विकुर्वणा करते हैं, तब वे एक बड़े मुद्गर या मुसुंढि, करवत, शूल आदि शस्त्र और लकड़ी यावत् भिंडमाल के रूप की विकुर्वणा कर सकते हैं और जब बहुत से रूपों की विकुर्वणा करते हैं, तब मुद्गर से लेकर भिंडमाल तक बहुत-से शस्त्रों की विकर्वणा कर सकते हैं। वे सब संख्येय होते हैं, असंख्येय नहीं। इसी प्रकार वे सम्बद्ध
और सदृश रूपों की विकुर्वणा करते हैं, असम्बद्ध एवं असदृश रूपों की नहीं। इस प्रकार की विकुर्वणा करके वे एक-दूसरे के शरीर को अभिघात (चोट) पहुँचाते हुए वेदना की उदीरणा करते हैं। वह वेदना उज्ज्वल (तप), विपुल (सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त), प्रगाढ़, कर्कश (अनिष्टकर), कटुक, परुष (कठोर), निष्ठुर, चण्ड, तीव्र, दुर्ग, दुःखरूप और दुःसह होती है। (जीवाभिगम सूत्र, प्रतिपत्ति ३, द्वितीय उद्देशक, नरकस्वरूपवर्णन, पृष्ठ ११७)
Elaboration About transmutation of infernal beings-The gist of the statement from Jivabhigam Sutra is as follows-In the hells like Ratnaprabha the infernal beings are capable of transmutation into one form as well as many. When they transmute into one form they can acquire form of a large mace or any other weapon (musudhi, karavat, shool, staff, bhindamal etc.). When they transmute into many forms they can acquire forms of many of these weapons. The number of these are countable and not innumerable. This way they transmute into related and similar forms and not otherwise. After acquiring these forms they hit each other and inflict pain. This pain is searing (ujjval), great (vipul; spread all over the body), deep (pragadh), harsh (karkash), bitter (katuk), hard (parush), cruel (nishthur), excruciating (chand), violent (tivra), gripping (durg), miserable (duhkharupa), and unbearable (duhsaha). [Jivabhgam Sutra 3/2 (Description of Narak), p. 117] आधाकर्मादि आहार का फल FRUITS OF TAKING FAULTY FOOD
१५. [१] 'आहाकम्मं णं अणवज्जे' त्ति मणं पहारेत्ता भवइ, से णं तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कंते कालं करेइ नत्थि तस्स आराहणा।
[ २ ] से णं तस्स ठाणस्स आलोइयपडिक्कंते कालं करेति अत्थि तस्स आराहणा।
[३] एतेणं गमेणं नेयवं-कीयकडं, ठवियगं, रइयगं, कंतारभत्तं, दुभिक्खभत्तं, बद्दलियाभत्तं, गिलाणभत्तं, सिज्जातरपिंडं, रायपिंहें।
१५. [१] 'आधाकर्म (साधु के लिए बनाया हुआ भोजन, वस्त्र, भवन आदि) अनवद्य-निर्दोष है', इस प्रकार जो साधु मन में समझता है, वह यदि उस आधाकर्म-स्थान की आलोचना (तदनुसार प्रायश्चित्त) एवं प्रतिक्रमण किये बिना ही काल कर जाता है, तो उसके आराधना नहीं होती।
[ २ ] वह (पूर्वोक्त प्रकार की धारणा वाला साधु) यदि उस (आधाकर्म-) स्थान की आलोचना एवं प्रतिक्रमण करके काल करता है, तो उसके आराधना होती है।
पंचम शतक: छठा उद्देशक
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Fifth Shatak : Sixth Lesson
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