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The verse—With bonding (bandh), fructifying (udirana), experiencing
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फ (vedan), reduction (apavartana), transformation ( sankramana), partial intransigence (nidhatt) and intransigence (nikachit) the karma that has not shifted is applicable and for shedding (nirjara) the karma that has shifted is applicable.
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विवेचन : नारकों की स्थिति आदि के सम्बन्ध के प्रश्नोत्तर - प्रस्तुत छठे सूत्र के २४ अवान्तर ( विभाग) दण्डक
5 करके शास्त्रकार ने प्रथम दण्डक में नारकों की स्थिति श्वासोच्छ्वास आदि से सम्बन्धित १० प्रश्नोत्तर किये हैं,
[उ. ] गौतम ! (वे) चलित कर्म की निर्जरा करते हैं, अचलित कर्म की निर्जरा नहीं करते ।
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गाथार्थ - बन्ध, उदय, वेदन, अपवर्तन, संक्रमण, निधत्तन और निकाचन के विषय में अचलित कर्म फ
समझना चाहिए और निर्जरा के विषय में चलित कर्म समझना चाहिए ।
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[1 - Q.10] Bhante ! Do the infernal beings shed ( nirjara) the karma
that has shifted (from soul) or the karma that has not shifted? [Ans.] Gautam ! They shed the karma that has shifted (from soul) and not the karma that has not shifted.
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जिनके समाधान भी दिये गये हैं।
फ्रं (आभ्यन्तर) श्वासोच्छ्वास को आणमन ( श्वास लेना), प्राणमन ( श्वास छोड़ना) और बाह्य को उच्छ्वास
Elaboration-The author has divided this sixth aphorism into 24 sections based on dandaks (places of suffering). In the first dandak there are ten questions about life-span, breathing and other things related to infernal beings and their answers.
विशेष शब्दार्थ : स्थिति - आयुकर्म के पुद्गलों के रहने की काल मर्यादा को स्थिति कहते हैं। आणमन
प्राणमन तथा उच्छ्वास - निःश्वास- श्वासोच्छ्वास दो प्रकार का है - आभ्यन्तर और बाह्य । आध्यात्मिक
निःश्वास कहते हैं। प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार नैरयिक जीव निरन्तर श्वासोच्छ्वास लेते हैं। क्योंकि वे अत्यन्त
दुःखी हैं - दुःखी जीव निरन्तर श्वास लेता है और छोड़ता है।
परिणत, चित, उपचित आदि-आहार का प्रसंग होने से यहाँ परिणत का अर्थ है-ग्रहण किए आहार का शरीर के साथ एकमेक होने योग्य रूप में परिवर्तित हो जाना। जिन पुद्गलों को परिणत किया है, उनका शरीर में एकमेक होकर शरीर को पुष्ट करना चय (चित) कहलाता है। जो चय किया गया है, उसमें अन्यान्य पुद्गल
5 एकत्रित कर देना उपचय (उपचित) कहलाता है।
नारकों का आहार - प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार 'नैरयिक जीव आहारार्थी है। उनका आहार दो प्रकार का होता
है - आभोगनिर्वर्तित (खाने की इच्छा से किया जाने वाला) और अनाभोगनिवर्तित (आहार की इच्छा के बिना भी किया जाने वाला) । अनाभोग आहार तो प्रतिक्षण सतत होता रहता है, किन्तु आभोगनिर्वर्तित- आहार की इच्छा कम से कम असंख्यात समय में, अर्थात् अन्तर्मुहूर्त्त में होती है। ( इसके अतिरिक्त नारकों के आहार का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, दिशा, समय आदि की अपेक्षा से भी विचार किया गया है।)
भगवतीसूत्र (१)
(20)
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Bhagavati Sutra (1)
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