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[४ ] अमायी णं तस्स ठाणस्स आलोइयपडिक्कंते कालं करेइ अस्थि तस्स आराहणा। 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति'।
॥ तइए सए : चउत्थो उद्देसो समत्तो ॥ [३] मायी मनुष्य उस स्थान (अपने द्वारा किये गये वैक्रिय प्रयोग) की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना (यदि) मृत्यु को प्राप्त करता है, तो उसके आराधना नहीं होती।
[४] (किन्तु पूर्व मायी जीवन में अपने द्वारा किये गये वैक्रियकरणरूप) उस (विराधना)-स्थान के विषय में पश्चात्ताप (आत्मनिन्दा) करके अमायी (बना हुआ) मनुष्य (यदि) आलोचना और प्रतिक्रमण । करके काल करता है, तो उसके आराधना होती है। _ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कहकर यावत् गौतम स्वामी विचरण करते हैं।
॥ तृतीय शतक : चतुर्थ उद्देशक समाप्त ॥ [3] If a maligned person dies without critical review and atonement for that deed (the act of transmutation), his spiritual practice remains non-accomplished.
[4] However if a person has become non-maligned by repenting for ! that deed (the act of transmutation done while he was maligned) and dies after doing critical review and atonement, his spiritual practice gets accomplished.
"Bhante ! Indeed that is so. Indeed that is so." With these words... and so on up to... ascetic Gautam resumed his activities.
• END OF THE FOURTH LESSON OF THE THIRD CHAPTER •
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भगवतीसूत्र (१)
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(472)
Bhagavati Sutra (1)
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