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अविक्कटे अव्वहिए अपरिताविए इहमागए, इह समोसढे, इह संपत्ते, इहेव अज्ज उवसंपज्जित्ताणं विहरामि।
तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! समणं भगवं महावीरं वंदामो णमंसामो जाव पन्जुवासामो। ॐ त्ति कटु चउसट्ठीए सामाणियसाहस्सीहिं-जाव सविडीए जाव जेणेव असोगवरपायवे जेणेव ममं ॥
अंतिए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ममं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं जाव नमंसित्ता एवं वयासीएवं खलु भंते ! मए तुम्भं नीसाए सक्के देविंदे देवराया सयमेव अच्चासाइ जाव तं भई णं भवतु
देवाणुप्पियाणं जस्सम्हि पभावेणं अक्किठे जाव विहरामि। तं खामेमि णं देवाणुप्पिया !' जाव, * उत्तरपुरथिमं दिसीभागं अवक्कमइ, जाव बत्तीसइबद्धं नट्टविहिं उवदंसेइ, जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव 卐 दिसिं पडिगए।
४२. उस समय असुरेन्द्र असुरराज चमर को मानसिक संकल्प चकनाचूर हो जाने से आर्तध्यान करते हुए सामानिक परिषद् में उत्पन्न देवों ने देखा तो वे हाथ जोड़कर इस प्रकार बोले-'हे देवानुप्रिय !
आज आपका मानसिक संकल्प नष्ट हो गया हो, इस तरह चिन्ता में क्यों डूबे हैं ?' इस पर असुरेन्द्र 卐 असुरराज चमर ने इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रियो ! मैंने स्वयमेव (अकेले ही) श्रमण भगवान महावीर
का आश्रय (निश्रा) लेकर, देवेन्द्र देवराज शक्र को उसकी शोभा से नष्ट-भ्रष्ट करने का मनोगत संकल्प
किया था। (तदनुसार मैंने सुधर्मासभा में जाकर उपद्रव किया था।) उससे अत्यन्त कुपित होकर मुझे 卐 मारने के लिए शक्रेन्द्र ने मुझ पर वज्र फैंका था। परन्तु देवानुप्रियो ! भला हो श्रमण भगवान महावीर
का, जिनके प्रभाव से मैं (क्लेशरहित व्यथा-पीड़ा से रहित) तथा (परितापरहित) रहा; और ॐ (सुखशान्ति से युक्त) होकर यहाँ आ पाया हूँ, और आज यहाँ मौजूद हूँ।' अतः हे देवानुप्रियो ! हम सब 卐 चलें और श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार करें, यावत् उनकी पर्युपासना करें।'
इस प्रकार विचार करके वह चमरेन्द्र अपने चौंसठ हजार सामानिक देवों के साथ, यावत् सर्वॐ ऋद्धिपूर्वक उस श्रेष्ठ अशोकवृक्ष के नीचे, जहाँ मैं था, वहाँ मेरे समीप आया। मेरे निकट आकर तीन
बार दाहिनी ओर से मेरी प्रदक्षिणा की। यावत् वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार बोला-'हे भगवन् ! ॐ आपका आश्रय लेकर मैं स्वयमेव देवेन्द्र देवराज शक्र को, उसकी शोभा से नष्ट-भ्रष्ट करने के लिए गया
था, यावत् (पूर्वोक्त कथन) आप देवानुप्रिय का भला हो, कि जिनके प्रभाव से मैं क्लेशरहित होकर आज निर्बाध विचरण कर रहा हूँ। अतः हे देवानुप्रिय ! मैं (इसके लिए) आपसे क्षमा माँगता हूँ।' (यों कहकर वह) उत्तर-पूर्व दिशा (ईशानकोण) में चला गया। फिर उसने बत्तीस प्रकार की नाट्यविधि (नाटक की कला) दिखलाई। फिर वह जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में वापस चला गया।
42. At that time when the gods born in the Samanik Sabha saw Chamarendra, the overlord (Indra) of Asurs, in grief due to the shattering of his resolve, they joined their palms and submitted "Beloved of gods ! Why are you so grief stricken as if your resolve has 41 been broken ?" At this Chamarendra, the overlord (Indra) of Asurs, replied—“Beloved of gods ! I had resolved to personally deprive Shakrendra, the king of gods, of his grandeur under Shraman Bhagavan
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| तृतीय शतक : द्वितीय उद्देशक
(437)
Third Shatak : Second Lesson
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