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4 for me. With these thoughts Shakrendra used his Avadhi-jnana and saw __me meditating. The moment he saw me (he involuntarily uttered)
“Oh! Alas! What have I done!" Repenting thus Shakrendra rushed after the Vajra (thunderbolt) with his maximum... and so on up to... divine speed and crossing innumerable continents and seas arrived where I (Bhagavan Mahavir) stood under that excellent Ashoka tree and he caught that Vajra when it was just four Anguls away from me.
O Gautam !(When Shakrendra caught the Vajra he closed his fist with so great force that) The air blown from his fist blew the tips of my hair.
३२. तए णं से सक्के देविंदे देवराया वजं पडिसाहरति, पडिसाहरित्ता ममं तिक्खुत्तो आयाहिणम पयाहिणं करेइ, करित्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-‘एवं खलु भंते ! अहं तुम्भं नीसाए
चमरेणं असुरिंदेणं असुररण्णा सयमेव अच्चासाइए। तए णं मए परिकुविएणं समाणेणं चमरस्स असुरिंदस्स ॐ असुररण्णो वहाए वज्जे निसटे। तए णं मे इमेयासवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-नो खलु पभू चभरे म असुरिंदे असुरराया तहेव जाव ओहिं पउंजामि, देवाणुप्पिए ओहिणा आभोएमि, 'हा ! हा ! अहो ! हतो * मी' ति कटु ताए उक्किट्ठाए जाव जेणेव देवाणुप्पिए तेणेव उवागच्छामि, देवाणुप्पियाणं चउरंगुलमसंपत्तं ॐ वज्जं पडिसाहरामि, वज्जपडिसाहरणट्ठयाए णं इहमागए इह समोसढे, इह संपत्ते इहेव अज्ज उवसंपज्जित्ता जणं विहरामि। म तं खामेमि णं देवाणुप्पिया ! खमंतु णं देवाणुप्पिया !, खमितुमरहंति णं देवाणुप्पिया ! णाइ भुज्जो एवं
पकरणयाए' त्ति कटु ममं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता उत्तरपुरथिमं दिसीभागं अवक्कमइ, वामेणं + पादेणं तिक्खुत्तो भूमिं दलेइ, चमरं असुरिंदं असुररायं एवं वयासी-'मुक्को सि णं भो ! चमरा ! ॥
असुरिंदा ! असुरराया ! समणस्स भगवओ महावीरस्स पभावेणं, न हि ते इयाणिं ममाओ भयमत्थि' त्ति कटु जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए।
३२. तदनन्तर देवेन्द्र देवराज शक्र ने वज्र को लेकर दाहिनी ओर से मेरी तीन बार प्रदक्षिणा की है और मुझे वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके कहा-भगवन् ! आपका ही आश्रय लेकर
स्वयं असुरेन्द्र असुरराज चमर मुझे अपनी श्री से भ्रष्ट करने आया था। तब मैंने परिकुपित होकर उस - असुरेन्द्र असुरराज चमर के वध के लिए वज्र फेंका था। इसके पश्चात् मुझे तत्काल इस प्रकार का 卐 विचार उत्पन्न हुआ कि असुरेन्द्र असुरराज चमर स्वयं इतना समर्थ नहीं है कि अपने ही आश्रय से इतना
ऊँचा-सौधर्मकल्प तक आ सके, इत्यादि पूर्वोक्त सब बातें शक्रेन्द्र ने कह सुनाईं। शक्रेन्द्र ने आगे कहा-5
भगवन् ! फिर मैंने अवधिज्ञान का प्रयोग किया। आपको देखा। आपको देखते ही सहसा 'हा हा ! 卐 अरे रे ! मैं मारा गया।' ये उद्गार मेरे मुख से निकल पड़े। फिर मैं उत्कृष्ट तीव्र देवगति से जहाँ आप के
देवानुप्रिय विराजमान हैं, वहाँ आया; और आप देवानुप्रिय से सिर्फ चार अंगुल दूर रहे हुए वज्र को
मैंने पकड़ लिया। (अन्यथा, घोर अनर्थ हो जाता !) मैं वज्र को वापस लेने के लिए ही यहाँ सुसुमारपुर + में और इस उद्यान में आया हूँ और अभी यहाँ हूँ।
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| तृतीय शतक : द्वितीय उद्देशक
(427)
Third Shatak: Second Lesson
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