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________________ 255555 5 5 5 5 5 595555 55955 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 2 卐 असुररण्णो अप्पणो निस्साए उड्ढं उप्पोइत्ता जाव सोहम्मो कप्पो, णऽन्नत्थ अरिहंते वा, अरिहंतचेइयाणि वा, 卐 फ्र अणगारे वा भावियप्पणो नीसाए उड्ढं उप्पयति जाव सोहम्मो कप्पो । तं महादुक्खं खलु तहारूवाणं अरिहंताणं 卐 卐 भगवंताणं अणगाराण य अच्चासायणाए' त्ति कट्टु ओहिं पउंजति, पउंजित्ता ममं ओहिणा आभोएति, 卐 भोत्ता 'हा ! हा ! अहो !' हतो अहमंसि' त्ति कट्टु ताए उक्किट्ठाए जाव दिव्याए देवगतीए वज्जस्स वीहिं 5 अणुगच्छमाणे अणुगच्छमाणे तिरियमसंखेज्जाणं दीव समुद्दाणं मज्झमज्झेणं जाव जेणेव असोगवरपायवे जेणेव ममं अंतिए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ममं चउरंगुलमसंपत्तं वज्जं पडिसाहर । फ्र अवियाsss मे गोयमा! मुट्ठिवाएणं केसग्गे वीइत्था | ३१. उसी समय देवेन्द्र शक्र को इस प्रकार का आन्तरिक अध्यवसाय यावत् मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि असुरेन्द्र असुरराज चमर इतनी शक्ति वाला नहीं है, न असुरेन्द्र असुरराज चमर इतना समर्थ है, और न ही असुरेन्द्र असुरराज चमर का इतना विषय (क्षमता) है कि वह अरिहंत भगवन्तों, अर्हन्त भगवान के चैत्यों अथवा भावितात्मा अनगार का आश्रय लिए बिना स्वयं अपने आश्रय से इतना ऊँचा (उठकर) यावत् सौधर्मकल्प तक आ सके । अतः वह असुरेन्द्र अवश्य अरिहन्त भगवन्तों यावत् अथवा किसी भावितात्मा अनगार के आश्रय से ही इतना ऊपर यावत् सौधर्मकल्प तक आया है। यदि ऐसा है तो उन तथारूप अर्हन्त भगवन्तों एवं अनगारों की (मेरे द्वारा फेंके हुए वज्र से) अत्यन्त आशातना होने से मुझे महाःदुख होगा। ऐसा विचार करके शक्रेन्द्र ने अवधिज्ञान का प्रयोग किया और उस अवधिज्ञान के प्रयोग से उसने मुझे ध्यानस्थ देखा ! मुझे देखते ही (उसके मुख से ये उद्गार निकल पड़े ) “हा ! हा ! अरे रे ! मैं मारा गया !" इस प्रकार पश्चात्ताप करके ( वह शक्रेन्द्र अपने वज्र को पकड़ लेने के लिए) उत्कृष्ट यावत् दि देवगति से वज्र के पीछे-पीछे दौड़ा। वज्र का पीछा करता हुआ वह शक्रेन्द्र तिरछे असंख्यात द्वीप समुद्रों के बीचोंबीच होता हुआ यावत् उस श्रेष्ठ अशोकवृक्ष के नीचे जहाँ मैं था, वहाँ आया और वहाँ मुझसे सिर्फ चार अंगुल दूर रहे हुए उस वज्र को उसने पकड़ लिया (वापस खींच लिया) । हे गौतम! (जिस समय शक्रेन्द्र ने वज्र को पकड़ा, उस समय उसने अपनी मुट्ठी इतनी जोर से बन्द की कि उस मुट्ठी की हवा से मेरे केशाग्र हिलने लगे । 31. At that time Shakrendra, the overlord of gods, had an inspiration (adhyavasaya)... and so on up to... resolve (sankalp) that Chamarendra, the overlord (Indra) of Asurs does not have so much power, capacity or ability that without the support of Arihants or Chaitya of Arihants or sagacious ascetics (bhavitatma anagar) he could, on his own, go upwards... and SO on up to... Saudharma Kalp. That means Chamarendra has, indeed, come upwards... and so on up to... Saudharma 5 Kalp only with the support of Arihants... and so on up to... sagacious ascetics (bhavitatma anagar). If it is so, this (the thunderbolt launched by me) will cause great disturbance to those Arihants... and so on up to... sagacious ascetics (bhavitatma anagar) and it would be highly grievous Bhagavati Sutra (1) भगवतीसूत्र (१) फफफफफ Jain Education International (426) For Private & Personal Use Only 卐 फफफफफफ www.jainelibrary.org
SR No.002902
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhyaprajnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2005
Total Pages662
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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