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5 वग्घारियपाणी एगपोग्गलनिविट्ठदिट्ठी अणिमिसनयणे ईसिप भारगएणं काएणं अहापणिहिएहिं गत्तेहिं
सव्विंदिएहिं गुत्तेहिं एगरातियं महापडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरामि ।
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२२. गौतम ! उस काल और उस समय मैं छद्मस्थ अवस्था में था; मेरा दीक्षा-पर्याय ग्यारह वर्ष का था। उस समय मैं निरन्तर छट्ट-छट्ट तप करता हुआ, संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित ५ करता हुआ, पूर्वानुपूर्वी क्रम से विचरण करता हुआ, ग्रामानुग्राम घूमता हुआ, जहाँ सुंसुमारपुर नगर था, जहाँ अशोकवनषण्ड नामक उद्यान था, वहाँ श्रेष्ठ अशोक तरु के नीचे पृथ्वीशिलापट्टक के पास आया । मैंने उस समय अशोकतरु के नीचे स्थित पृथ्वीशिलापट्टक पर खड़े होकर अट्ठमभक्त तप ग्रहण ५ किया। (उस समय) मैंने दोनों पैरों को परस्पर सटा लिया। दोनों हाथों को नीचे की ओर लटकाए हुए ( जिनेन्द्र मुद्रा में) सिर्फ एक पुद्गल पर ( नासाग्र या भृकुटि पर) दृष्टि स्थिर कर, निर्निमेष नेत्र ( आँखों की पलकों को न झपकाते हुए) शरीर के अगले भाग को थोड़ा-सा आगे झुकाकर, यथावस्थित गात्रों ५ ( शरीर के अंगों) से एवं समस्त इन्द्रियों को गुप्त (स्वकेन्द्रित या अन्तर्लीन) करके एकरात्रि की महाप्रतिमा को अंगीकार करके कायोत्सर्ग किया था।
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22. Gautam ! During that period of time I was in the Chhadmasth state (one who is short of omniscience due to residual karmic bondage); iny ascetic-life (diksha-paryaya) was only eleven years old. At that time observing a series of two day fasts, enkindling my soul with asceticdiscipline and austerities, comfortably wandering from one village to Y another in course of my usual itinerant way, I had arrived near a slab of rock lying under an excellent Ashoka tree in the Ashoka garden of Sumsumar-pur city. Standing on that slab under the Ashoka tree I had taken vow of a three day fast (avoiding eight meals). Then joining both feet and with hands hanging downward I had fixed my unblinking gaze y on a single molecule (pudgal; or a point on the tip of nose or middle of eye-brows). With the upper half of the body slightly bent forward, making the whole body tranquil, and controlling all sense organs, I had accepted Maha-pratima for a night commencing kayotsarg meditation F (complete dissociation from the body).
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5 २३. तेणं कालेणं तेणं समएणं चमरचंचा रायहाणी अणिंदा अपुरोहिया याऽवि होत्था । तए णं से पूरणे
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बालतवस्ती बहुपsिपुणाई दुवालसवासाइं परियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेत्ता सट्ठि भत्ता असणाए छेत्ता कालमासे कालं किच्चा चमरचंचाए रायहाणीए उववायसभाए जाव इंदत्ताए उववन्ने ।
२३. उस काल और उस समय में चमरचंचा राजधानी इन्द्रविहीन और पुरोहितरहित थी । (इधर ) पूरण बाल-तपस्वी पूरे बारह वर्ष तक ( दानामा) प्रव्रज्या - पर्याय का पालन करके, एकमासिक संलेखना की आराधना से अपनी आत्मा को सेवित करके, साठ भक्त अनशन रखकर मृत्यु के अवसर पर मृत्यु प्राप्त करके चमरचंचा राजधानी की उपपातसभा में यावत् इन्द्र के रूप में उत्पन्न हुआ।
5 भगवतीसूत्र (१)
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Bhagavati Sutra (1)
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