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23. During that period of time capital city Chamarchancha was without an Indra (overlord) as well as Purohit (priest). (Here) After spending complete twelve years as a Danama initiate, naive-hermit Puran enkindled his soul with the ultimate vow (sallekhana) of one month duration, avoiding sixty meals and passed away at the time of death. He reincarnated in capital city Chamarchancha in the divine hall of birth (upapat sabha)... and so on up to... as Indra (overlord)
२४. तए णं से चमरे असुरिंदे असुरराया अहुणोववन्ने पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तीभावं गच्छइ, तं जहा-आहारपज्जत्तीए जाव भास-मणपज्जत्तीए।
२४. उस समय तत्काल उत्पन्न हुआ असुरेन्द्र असुरराज चमर आहारपर्याप्ति से यावत् पाँच प्रकार की पर्याप्तियों से पर्याप्त बना। ___24. Then that instantaneously born Chamarendra, the overlord (Indra) of Asurs attained the state of full development (paryapti bhaava) through aahaar (food) paryapti... and so on up to... all five kinds of full development (paryapti). चमरेन्द्र द्वारा सौधर्मकल्प में उत्पात MISCHIEF BY CHAMARENDRA IN SAUDHARMA KALP
२५. तए णं से चमरे असुरिंदे असुरराया पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तीभावं गये समाणे उड्ढे वीससाए ओहिणा आभोएइ जाव सोहम्मो कप्पो। पासइ य तत्थ सक्कं देविंदं देवरायं मघवं पागसासणं सतक्कतुं सहस्सक्खं वज्जपाणिं पुरंदरं जाव दस दिसाओ उज्जोवेमाणं पभासेमाणं। सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडेंसए विमाणे सभाए सुहम्माए सक्कंसि सीहासणंसि जाव दिब्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणं पासइ, पासित्ता इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था-केस णं एस अपत्थियपत्थए दुरंतपंतलखणे हिरि-सिरि-परिवज्जिए हीणपुण्णचाउद्दसे जे णं ममं इमाए एयारूवाए दिव्याए देविड्डीए जाव दिब्वे देवाणुभावे लद्धे पत्ते जाव अभिसमन्नागए उप्पिं अप्पुस्सुए दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ ? एवं संपेहेइ, संपेहित्ता सामाणियपरिसोववन्नए देवे सद्दावेइ, एवं वयासी-केस णं एस देवाणुप्पिया ! अपत्थियपत्थए जाव भुंजमाणे विहरइ ?
२५. जब असुरेन्द्र असुरराज चमर पाँच पर्याप्तियों से पर्याप्त हो गया, तब उसने स्वाभाविक रूप से ऊपर सौधर्मकल्प तक अवधिज्ञान का उपयोग किया। वहाँ उसने देवेन्द्र देवराज, मघवा, पाकशासन, शतक्रतु, सहस्राक्ष, वज्रपाणि, पुरन्दर (ये छहों इन्द्र के गुण निष्पन्न नाम हैं) शक्र को दसों दिशाओं को उद्योतित एवं प्रकाशित करते हुए एवं सौधर्मकल्प में सौधर्मावतंसक विमान में शक्र नामक सिंहासन पर बैठकर, दिव्य भोगों का उपभोग करते हुए देखा। इसे देखकर चमरेन्द्र के मन में इस प्रकार का आन्तरिक चिन्तन, भाव एवं मनोगत संकल्प समुत्पन्न हुआ कि-"अरे ! कौन यह अप्रार्थित-प्रार्थक(अनिष्ट वस्तु की प्रार्थना-अभिलाषा करने वाला, मृत्यु का इच्छुक), निकृष्ट लक्षण वाला तथा लज्जा(ही) और शोभा-(श्री) से रहित, हीनपुण्या (अपूर्ण-टूटती) चतुर्दशी को जन्मा हुआ है, जो मुझे इस तृतीय शतक : द्वितीय उद्देशक.
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Third Shatak : Second Lesson
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