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________________ फ्र फ़फ़ १२. [ प्र. ] केवतियं च णं भंते! असुरकुमाराणं देवाणं उड्ढं गतिविसए ? [उ. ] गोयमा ! जाव अच्चुए कप्पे । सोहम्मं पुण कप्पं गता य, गमिस्संति य । १२. [ प्र. ] भगवन् ! असुरकुमारदेव अपने स्थान से कितने ऊँचे जा सकते हैं ? [ उ. ] गौतम ! असुरकुमारदेव अपने स्थान से यावत् अच्युतकल्प ( बारहवें देवलोक ) तक ऊपर जाने में समर्थ हैं। अपितु वे सौधर्मकल्प तक गये हैं, (जाते हैं) और जायेंगे। 12. [Q.] Bhante ! How far in the upward direction they are capable of going? [Ans.] They are capable of going up to Achyut Kalp (the twelfth heaven); but they have gone and will go only as far as Saudharma Kalp. १३. [ प्र. १ ] किंपत्तियं णं भंते ! असुरकुमारा देवा सोहम्मं कप्पं गया य, गमिस्संति य ? [ उ. ] गोयमा ! तेसि णं देवाणं भवपच्चइयवेराणुबंधे । ते णं देवा विकुब्वेमाणा, परियारेमाणा वा आयरक्खे देवे वित्तासेंति। अहालहुस्सगाई रयणाई गहाय आयाए एगंतमंतं अवक्कमंति । [प्र. २ ] अत्थि णं भंते ! तेसिं देवाणं अहालहुस्सगाई रयणाई ? [उ. ] हंता, अत्थि । [प्र. ३ ] से कहमिदाणिं पकरेंति ? [ उ. ] तओ से पच्छा कायं पव्वहंति । १३. [ प्र. १ ] भगवन् ! असुरकुमार देव किस प्रयोजन से सौधर्मकल्प तक गये हैं, (जाते हैं) और जायेंगे ? [उ. ] हे गौतम ! उन (असुरकुमार) देवों का वैमानिक देवों के साथ भवप्रत्ययिक (जन्मजात ) वैरानुबन्ध होता है। इस कारण वे देव क्रोधवश वैक्रिय-शक्ति द्वारा विशाल, विकराल रूप बनाते हैं। परकीय देवियों के साथ (परिचार) मैथुन क्रीड़ा करना चाहते हैं, (इन्द्र के) आत्मरक्षक देवों को त्रास (भयभीत करने) देने जाते हैं, तथा छोटे-मोटे रत्नों को चुराकर स्वयं एकान्त स्थान में चले (छुप जाते हैं। [प्र. २ ] भगवन् ! क्या उन (वैमानिक) देवों के पास यथोचित छोटे-मोटे रत्न होते हैं ? [ उ. ] हाँ, गौतम ! होते हैं। [प्र. ३ ] भगवन् ! जब वे (असुरकुमार देव) वैमानिक देवों के यथोचित रत्न चुराकर भाग जाते हैं, तब वैमानिक देव उनका क्या करते हैं ? [ उ. ] तत्पश्चात् वैमानिक देव उनके शरीर को अत्यन्त व्यथा ( पीड़ा) पहुँचाते हैं। 13. [Q. 1] Bhante ! For what reason Asur Kumar Devs have gone and will go up to Saudharma Kalp? 卐 卐 भगवतीसूत्र (१) 卐 (408) தமிழ்த்*த***மிழதமிமிமிமிமி Jain Education International Bhagavati Sutra (1) **தமிழ*****ழ****தி For Private & Personal Use Only y ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ 卐 www.jainelibrary.org
SR No.002902
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhyaprajnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2005
Total Pages662
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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