________________
फ्र
தததததி**************************தித்திதி
சு
फ बहुजायरूव- रयया आयोग - पयोगसंपउत्ता विच्छड्डियविपुलभत्त-पाणा बहुदासी - दास - गो-महिस5 गवेलयप्पभूता बहुजणस्स अपरिभूता ।
卐
卐
卐
समणोवासया परिवसंति अड्डा दित्ता वित्थिण्णविपुलभवण - सयणाऽऽसण - जाण - वाहणाइण्णा बहुधण - 5
卐
फ निग्गंथाओ पावयणाओ अणतिक्कमणिज्जा, णिग्गंथे पावयणे निस्संकिया निक्कंखिया निव्वितिगिंच्छा लट्ठा
गहियट्ठा पुच्छियट्ठा अभिगयट्ठा विणिच्छियट्ठा, अट्ठिमिंज - पेम्माणुरागरत्ता - 'अयमाउसो ! निग्गंथे पावयणे अट्ठे, अयं परमट्ठे, सेसे अणट्टे' ।
(२) अभिगयजीवाजीवा उवलद्धपुण्ण - पावा- आसव - संवर - निज्जर - किरियाहिकरण - बंधमोक्खकुसला
असेहज्जदेवासुर - नाग - सुवण्ण - जक्ख - रक्खस - किन्नर - किंपुरिस - गरुल - गंधव्य - महोरगादिएहिं देवगणेहिं 5
(३) ऊसिय-फलिहा अवंगुयदुवारा चियत्तंतेउर-घरप्पवेसा, बहूहिं सीलव्वय-गुण- वेरमण5 पच्चक्खाण - पोसहोववासेहिं चाउद्दसऽमुद्दिट्ठपुण्ण - मासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्मं अणुपालेमाणा, समणे निग्गंथे फासु एसणिज्जेणं असण - पाण- खाइम - साइमेणं वत्थ - पडिग्गह- कंबल - पादपुंछणेणं पीढ - फलग - सेज्जा - संथारगेणं ओसह - भेसज्जेण य पडिला भेमाणा, अहापडिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणा विहरंति ।
卐
卐
११. उस काल उस समय में तुंगिया (तुंगिका) नाम की (पाटलिपुत्र से १० किमी. दूर) नगरी थी। उस तुंगिका नगरी के बाहर उत्तर-पूर्व दिशा भाग (ईशानकोण) में पुष्पवतिक नाम का चैत्य (उद्यान) था । इत्यादि वर्णन औपपातिकसूत्रानुसार कहें ।
[ १. तुंगिका के श्रावकों का ऐश्वर्य वर्णन ] उस तुंगिका नगरी में बहुत से श्रमणोपासक रहते थे। वे
5 आढ्य (विपुल धन-सम्पत्ति वाले) और दीप्त (स्वाभिमानी ) थे। उनके विशाल अनेक भवन थे । तथा वे
शयनों (शयन सामग्री), आसनों, यानों (रथ, गाड़ी आदि ) तथा वाहनों (बैल, घोड़े आदि) से सम्पन्न थे ।
卐
5
उनके पास प्रचुर धन (रुपये आदि सिक्के), बहुत-सा सोना-चाँदी आदि था । वे आयोग - (रुपया उधार
5 देकर उसके ब्याज आदि द्वारा दुगुना तिगुना अर्थोपार्जन करने का व्यवसाय) और प्रयोग - ( अन्य 5
卐 कलाओं का व्यवसाय) करने में कुशल थे। उनके घर बहुत जन भोजन करते थे, इसलिए बहुत भोजन
卐
5 तैयार होता था। उनके यहाँ बहुत-सी दासियाँ और दास थे; तथा बहुत-सी गायें, भैंसें, भेड़ें और
बकरियाँ आदि थीं। वे बहुत-से मनुष्यों द्वारा भी अपरिभूत दबते नहीं थे ।
[ २. श्रावकों का आध्यात्मिक जीवन ] वे जीव (चेतन) और अजीव (जड़) के स्वरूप को भलीभाँति
जानते थे। उन्होंने पुण्य और पाप को समझ लिया था। वे आस्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण,
卐
बन्ध और मोक्ष के विषय में कुशल थे। ( अर्थात् इनमें से हेय, ज्ञेय और उपादेय को सम्यक् रूप से
5 जानते थे ।) वे (किसी भी कार्य में दूसरों से) सहायता की अपेक्षा नहीं रखते थे। (वे निर्ग्रन्थ प्रवचन में
卐
इतने दृढ़ थे कि) देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष, गरुड़, गन्धर्व, महोरग
आदि देवगणों के द्वारा निर्ग्रन्थ प्रवचन से विचलित नहीं किये जा सकते थे। वे निर्ग्रन्थ प्रवचन के प्रति
5 निःशंकित थे, निष्कांक्षित थे तथा विचिकित्सारहित थे । उन्होंने शास्त्रों के अर्थों को भलीभाँति ग्रहण कर
卐
फ्र भगवतीसूत्र (१)
卐
(290)
Jain Education International
बफफफफफफफफफ
फफफफफफफफफफ
Bhagavati Sutra (1)
For Private & Personal Use Only
5
www.jainelibrary.org