SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 310
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तुडभे वदह त्ति कटु समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति, वंदित्ता नमंसित्ता उत्तरपुरित्थमं दिसीभागं , ॐ अवक्कमइ, अवक्कमित्ता तिदंडं च कुंडियं य जाव धातुरत्ताओ य एगंते एडेइ, एडित्ता जेणेव समणे भगवं म महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करित्ता जाव नमंसित्ता एवं वयासीम आलित्ते णं भंते ! लोए, पलिते णं भंते ! लोए, आलित्त-पलित्ते णं भंते ! लोए जराए मरणेण य। ॐ से जहाणामए केइ गाहावई अगारंसि झियायमाणंसि जे से तत्थ भेडे भवइ अप्पभारे मोल्लगरुए तं गहाय + आयाए एगंतमंतं अवक्कमइ। एस मे नित्थारिए समाणे पच्छा पुरा य हियाए सुहाए खमाए निस्सेयसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ। एवामेव देवाणुप्पिया ! मज्झ वि आया एगे भेडे इडे कंते पिए मणुन्ने मणामे ॐ थेग्जे वेसासिए सम्मए बहुमए अणुमए भंडकरंडगसमाणे, मा णं सीतं, मा णं उण्हं, मा णं खुहा, मा णं ॥ पिवासा, मा णं चोरा, मा णं वाला, मा णं दंसा, मा णं मसगा, मा णं वाइय-पित्तिय-सिंभियॐ सनिवाइय विविहा रोगायंका परीसहोवसग्गा फुसंतु ति कटु, एस मे नित्थारिए समाणे परलोयस्स हियाए सुहाए खमाए नीसेसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ। तं इच्छामि गं देवाणुप्पिया ! सयमेव पव्वावियं, सयमेव मुंडावियं, सयमेव सेहावियं, सयमेव सिक्खावियं, सयमेव आयार-गोयर-विणय-वेणइयचरण-करण-जाया-मायावत्तियं धम्ममाइक्खिउं। ३४. तत्पश्चात् वह कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक श्रमण भगवान महावीर के श्रीमुख से धर्मकथा सुनकर एवं हृदय में अवधारण करके हर्षित हुआ, सन्तुष्ट हुआ, यावत् उसका हृदय हर्ष से 5 विकसित हो गया। फिर खड़े होकर और श्रमण भगवान महावीर को दाहिनी ओर से तीन बार प्रदक्षिणा करके स्कन्दक परिव्राजक ने कहा-'भगवन् ! निर्ग्रन्थ प्रवचन पर मैं श्रद्धा प्रतीति एवं रुचि करता हूँ, भगवन् ! निर्ग्रन्थ प्रवचन को स्वीकार करता हूँ। हे भगवन् ! यह (निर्ग्रन्थ प्रवचन) इसी प्रकार है, यह तथ्य है है, यह सत्य है, यह सन्देहरहित है, भगवन् ! यह मुझे इष्ट है, विशेष इष्ट है, इष्ट-प्रतीष्ट है। हे भगवन् ! जैसा आप फरमाते हैं, वैसा ही है। यों कहकर स्कन्दक परिव्राजक ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दननमस्कार किया। ऐसा करके उसने उत्तर-पूर्व दिशा के ईशानकोण में जाकर त्रिदण्ड, कुण्डिका, यावत् गेरुए वस्त्र आदि परिव्राजक के उपकरण एकान्त में छोड़ दिये। फिर श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पास आकर भगवान महावीर को तीन बार प्रदक्षिणा करके यावत् नमस्कार करके इस प्रकार बोला___भगवन् ! जरा (वृद्धावस्था) और मृत्यु रूपी अग्नि से यह लोक (संसार) आदीप्त-प्रदीप्त (जल रहा है, विशेष जल रहा है) है, जैसे किसी गृहस्थ के घर में आग लग गई हो और वह घर जल रहा हो, तब वह ॥ उस जलते घर में से बहुमूल्य और अल्पभार वाले सामान को सबसे पहले बाहर निकालता है और उसे : लेकर एकान्त में ले जाकर यह सोचता है- 'बाहर निकाला हुआ यह सामान भविष्य में आगे-पीछे मेरे लिए म हितरूप, सुखरूप, क्षेमकुशलरूप, कल्याणरूप एवं साथ चलने वाला होगा।' इसी तरह हे भगवन् ! मेरा ॥ आत्मा भी एक भाण्ड (समान) रूप है। यह मुझे इष्ट, कान्त, प्रिय, सुन्दर, मनोज्ञ, मनोरम, स्थिरता देने के ॐ वाला, विश्वासपात्र, सम्मत, अनुमत, बहुमत और रत्नों (या आभूषणों) के पिटारे के समान है। इसलिए 卐 इसे ठंड न लगे, गर्मी न लगे, यह भूख-प्यास से पीड़ित न हो, इसे चोर, सिंह और सर्प हानि न पहुँचायें, 5 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 $$ $$$$ (256) Bhagavati Sutra (1) भगवतीसूत्र (१) 5 55555 B5 ) )))))) )))))))558 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002902
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhyaprajnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2005
Total Pages662
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_bhagwati
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy