________________
855555555555555555555555555555
AFFFFFFFFFFFFF 55 555555听听听听听听听听听听听听听听听听听听55555555 55
२३. [प्र. ] 'खंदया !' ति समणे भगवं महावीरे खंदयं कच्चायणसगोत्तं एवं वयासी-से नूणं तुम ॐ खंदया ! सावत्थीए नयरीए पिंगलएणं णियंटेणं वेसालियसावएणं इणमक्खेवं पुच्छिए 'मागहा ! किं सअंते ॥
लोए अणंते लोए ?' एवं ते चेव जाव जेणेव ममं अंतिए तेणेव हव्यमागए। से नूणं खंदया ! अयमढे समढे ? । म [उ. ] हंता, अत्थि।
२३. [प्र. ] तत्पश्चात् 'स्कन्दक !' इस प्रकार सम्बोधित करके श्रमण भगवान महावीर ने कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक से इस प्रकार कहा-हे स्कन्दक ! श्रावस्ती नगरी में वैशालिक
श्रावक पिंगल निर्ग्रन्थ ने तुमसे इस प्रकार पूछा था कि-मागध ! लोक सान्त है या अनन्त ! आदि। ॐ उसके प्रश्नों का उत्तर न दे पाने से व्याकुल होकर तुम मेरे पास (उत्तर जानने के लिए) आये हो।
हे स्कन्दक ! क्या यह बात सत्य है ? म [उ. ] (स्कन्दक-) 'हाँ, भगवन् ! यह बात सत्य है।'
23. [Q.] Then addressing him as 'Skandak !', Shraman Bhagavan Mahavir said to Parivrajak Skandak of Katyayan clan-"O Skandak! In Shravasti, Vaishalik Shravak ascetic Pingal had asked you five questions including-'O Maagadh ! Is the Lok with or without limit ? Failing to provide answers, you have come here to ask me those questions. O Skandak ! Tell me if it is true ?"
[Ans.) (Skandak) “Yes, Bhagavan ! It is true.” म लोक : सान्त या अनन्त LOK : WITH OR WITHOUT LIMIT
२४. [१] जे वि य ते खंदया ! अयमेयारूवे अन्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे । म समुप्पज्जित्था-किं सअंते लोए, अणंते लोए ? तस्स वि य णं अयमह्र-एवं खलु मए खंदया ! चउबिहे
लोए पण्णत्ते, तं जहा-दव्बओ खेत्तओ कालओ भावओ। दव्वओ णं एगे लोए सअंते। खेत्तओ णं लोए ॐ असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ आयाम-विक्खंभेणं, असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ परिक्खेवेणं
पण्णत्ता, अत्थि पुण से अंते। कालओ णं लोए ण कयावि न आसी न कयावि न भवति न कयावि न ॐ भविस्सति, भुविं च भवइ य भविस्सइ य धुवे णियए सासए अक्खए अब्बए अवट्ठिए णिच्चे, णत्थि पुण से 9 म अंते। भावओ णं लोए अणंता वण्णपज्जवा गंध-रस-फासपज्जवा, अणंता संठाणपज्जवा, अणंता ॐ गरुय-लहुयपज्जवा, अणंता अगरुय-लहुयपज्जवा, नत्थि पुण से अंते। से तं खंदगा ! दवओ लोए सअंते, खेत्तओ लोए सअंते, कालओ लोए अणंते, भावओ लोए अणंते।
२४. [१] (भगवान-) हे स्कन्दक ! तम्हारे मन में जो इस प्रकार का अध्यवसाय, चिन्तन, , अभिलाषा एवं संकल्प, समुत्पन्न हुआ था कि ‘लोक सान्त है, या अनन्त ?' उसका यह उत्तर है-हे
स्कन्दक ! मैंने (चार दृष्टिकोणों से) चार प्रकार का लोक बताया है, वह इस प्रकार है-(१) द्रव्यलोक, म (२) क्षेत्रलोक, (३) काललोक, और (४) भावलोक। (१) उन चारों में से द्रव्य से लोक एक है, और के
步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步日
द्वितीय शतक : प्रथम उद्देशक
(247)
Second Shatak: First Lesson 55555555555555555555555555555555558
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org