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ॐ कच्चायणसगोत्तं एवं वयासी-'हे खंदया ! सागयं खंदया ! सुसागयं खंदया ! अणुरागयं खंदया ! ॐ
सागयमणुरागयं खंदया ! से नूणं तुमं खंदया ! सावत्थीए नयरीए पिंगलएणं नियंठेणं वेसालियसावएणं फ़ इणमक्खेवं पुच्छिए 'मागहा ! किं संअते लोगे अणंते लोगे ? एवं तं चेव' जेणेव इहं तेणेव हव्वमागए। से नूणं खंदया ! अत्थे समत्थे ?
[उ. ] हंता अत्थि।
[प्र. २ ] तए णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते भगवं गोयमं एवं वयासी-से केस णं गोयमा ! तहारूवे नाणी वा तवस्सी वा जेणं तव एस अट्ठे मम ताव रहस्सकडे हब्बमक्खाए, जओ णं तुमं जाणसि ?
[उ. ] तए णं से भगवं गोयमे खंदयं कच्चायणसगोत्तं एवं वयासी-एवं खलु खंदया ! मम धम्मायरिए ॐ धम्मोवएसए समणे भगवं महावीरे उप्पन्नणाण-दंसणधरे अरहा जिणे केवली तीयपच्चुप्पन्नमणागयवियाणए सव्वण्णू सव्वदरिसी जेणं ममं एस अढे तव ताव रहस्सकडे हव्वमक्खाए, जओ णं अहं जाणामि खंदया !
[३] तए णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते भगवं गोयमं एवं वयासी-गच्छामो णं गोयमा ! तव धम्मायरियं धम्मोवदेसयं समणं भगवं महावीरं वंदामो णमंसामो जाव पज्जुवासामो। ____अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह।
[४ ] तए णं से भगवं गोयमे खंदएणं कच्चायणसगोत्तेणं सद्धिं जेणेव समणे भगवं महावीरे तणेव ॐ पहारेत्थ गमणाए।
. २०. [प्र. १] इसके पश्चात् भगवान गौतम कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक के पास आया हुआ ऊ जानकर शीघ्र अपने आसन से उठे और शीघ्र ही उसके सामने गये; और जहाँ स्कन्दक परिव्राजक था, वहाँ
आये। स्कन्दक के पास आकर उससे इस प्रकार कहा-“हे स्कन्दक ! स्वागत है तुम्हारा, स्कन्दक ! तुम्हारा सुस्वागत है ! स्कन्दक! तुम्हारा आगमन ठीक समय पर-उचित हुआ है। हे स्कन्दक ! पधारो! आप भले पधारे !'' फिर श्री गौतम स्वामी ने स्कन्दक से कहा-“स्कन्दक ! श्रावस्ती नगरी में वैशालिक श्रावक पिंगलक निर्ग्रन्थ ने तुमसे इस प्रकार पूछा था कि हे मागध ! लोक सान्त है या अनन्त? इत्यादि (पाँच प्रश्न पूछे थे।) उनके प्रश्नों से निरुत्तर होकर उत्तर पूछने के लिए यहाँ भगवान के पास आये हो। हे स्कन्दक ! कहो, यह बात सत्य है ?"
[उ. ] (स्कन्दक) “हाँ, गौतम ! यह बात सत्य है।" ज [प्र. २ ] फिर स्कन्दक परिव्राजक ने भगवान गौतम से इस प्रकार पूछा- “गौतम ! कौन ऐसा म ज्ञानी और तपस्वी पुरुष है, जिसने मेरे मन की गुप्त बात (रहस्य) तुमसे शीघ्र कह दी; जिससे तुम मेरे ॐ मन की गुप्त बात को जान गये?'
[उ. ] तब भगवान गौतम ने स्कन्दक परिव्राजक से कहा-'हे स्कन्दक ! मेरे धर्मगुरु, धर्मोपदेशक, ॐ श्रमण भगवान महावीर, उत्पन्न ज्ञान-दर्शन के धारक हैं, अर्हन्त हैं, जिन हैं, केवली हैं, भूत, भविष्य के
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भगवतीसूत्र (१)
(244)
Bhagavati Sutra (1)
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