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विवेचन : वायुकाय के श्वासोच्छ्वास-सामान्यतया वायुकाय के अतिरिक्त पृथ्वी, जल, तेज एवं वनस्पति तो वायुरूप में श्वासोच्छ्वास ग्रहण करते हैं, किन्तु वायुकाय तो स्वयं वायुरूप है तो उसे श्वासोच्छ्वास के रूप में क्या दूसरे वायु की आवश्यकता रहती है ? यहाँ पर यह प्रश्न किया है।
इस शंका का समाधान यह है कि वायुकाय जीव है, उसे दूसरी वायु के रूप में श्वासोच्छ्वास की आवश्यकता रहती है, लेकिन ग्रहण की जाने वाली वह दूसरी वायु सजीव नहीं, निर्जीव (जड़) होती है, उसे किसी दूसरे सजीव वायुकाय की श्वासोच्छ्वास के रूप में आवश्यकता नहीं रहती इसलिए यहाँ अनवस्थादोष भी नहीं आ सकता।
वायुकाय आदि की कायस्थिति-पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय और वायुकाय, इन चार की कायस्थिति असंख्य अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी तक है तथा वनस्पतिकाय की कायस्थिति अनन्त अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी पर्यन्त है। ___Elaboration-Respiration in air-bodied beings-Generally speaking other beings, such as earth, water, fire and plant-bodied ones, inhale and exhale air. But air-bodied beings exist in the form of air only, so do they require outside air for respiration ? This is the doubt expressed.
The explanation for this is that air-bodied beings are living organism therefore they certainly require respiration. However, the air they inhale and exhale is lifeless and they do not require other air-bodied beings for this. Thus the concept is neither illogical nor impractical.
The life of air-bodied and the lot-The duration of existence of earth, water, fire and air-bodied beings is innumerable Avasarpini-utsarpini (regressive and progressive cycle of time) and that of plant-bodied ones is infinite Avasarpini-utsarpini. मृतादी निर्ग्रन्थों के भवभ्रमण REBIRTHS OF MRITADI ASCETICS
८. [प्र. १] मडाई णं भंते ! नियंठे नो निरुद्धभवे, नो निरुद्धभवपवंचे, णो पहीणसंसारे, णो पहीणसंसारवेदणिज्जे, णो वोच्छिण्णसंसारे, णो वोच्छिण्णसंसारवेदणिज्जे, नो निट्ठियढे नो निट्ठियटुकरणिज्जे पुणरवि इत्तत्थं हव्दमागच्छति ?
[उ. ] हंता, गोयमा ! मडाई णं नियंठे जाव पुणरवि इत्तत्थं हव्यमागच्छइ।
८. [प्र. १ ] भगवन् ! जिसने भव (जन्म) का निरोध नहीं किया, भव (जन्म) के प्रपंचों का निरोध ॐ नहीं किया, जिसका संसार क्षीण नहीं हुआ, जिसका संसार-वेदनीयकर्म क्षोण नहीं हुआ, जिसका म
चतुर्गति रूप संसार व्युच्छिन्न नहीं हुआ, जिसका संसार-वेदनीयकर्म व्युच्छिन्न नहीं हुआ, जो निष्ठितार्थ : * (कृतार्थ) नहीं हुआ, जिसका कार्य (करणीय) समाप्त नहीं हुआ; ऐसा मृतादि (अचित्त, निर्दोष आहार है
करने वाला) अनगार पुनः मनुष्यभव आदि भवों को प्राप्त होता है ? _[उ. ] हाँ, गौतम ! पूर्वोक्त स्वरूप वाला मृतादी निर्ग्रन्थ फिर मनुष्यभव आदि भवों को प्राप्त होता है।
द्वितीय शतक :प्रथम उद्देशक
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Second Shatak: First Lesson
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