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Ayu-karma (life-span determining karma) into strong bondage... and so y 卐 on up to... and continues to wander in cycles of rebirth.
(Q.J Bhante ! What is the reason for this... and so on up to... continues to wander in cycles of rebirth ? 41 [Ans.] Gautam ! While consuming food (etc.) with adhakarmik fault
an ascetic violates the natural duty of his soul (atmadharma). While violating the natural obligation of his soul he does not care for earthbodied beings... and so on up to... he also does not care for mobile beings, he also does not care for the beings whose bodies he enjoys. That is why, Gautam ! It is said that while consuming food (etc.) with adhakarmik fault an ascetic turns the weak bondage of seven species of karmas other than Ayu-harma (life-span determining karma) into strong bondage... and so on up to... and continues to wander in cycles of rebirth.
२७. [प्र. ] फासुएसणिज्जं णं भंते ! भुंजमाणे किं बंधइ जाव उवचिणाइ ?
[उ. ] गोयमा ! फासुएसणिज्जं णं भुंजमाणे आउयवज्जाओ सत्त कम्मपयडीओ धणियबंधणबद्धाओ सिढिलबंधणबद्धाओ पकरेइ जहा संवुडे णं (स. १, उ. १, सु. ११ [ २ ]) नवरं, आउयं च णं कम्म सिय बंधइ, सिय नो बंधइ। सेसं तहेव जाव वीतीवयति।
[प्र. ] से केणटेणं जाव वीतीवयति ? म [उ. ] गोयमा ! फासुएसणिज्जं णं भुंजमाणे समणे निगंथे आयाए धम्मं णाइक्कमति, आयाए धम्म
अणतिक्कममाणे पुढविक्कायं अवकंखति जाव तसकायं अवकंखति, जेसि पि य णं जीवाणं सरीराइं # आहारेति ते वि जीवे अवकंखति, से तेणटेणं जाव वीतीवयति।
२७. [प्र. ] हे भगवन् ! प्रासुक और एषणीय आहारादि का उपभोग करने वाला श्रमणनिर्ग्रन्थ क्या ॐ बाँधता है ? यावत् किसका उपचय करता है?
___ [उ. ] गौतम ! प्रासुक और एषणीय आहारदि भोगने वाला श्रमणनिर्ग्रन्थ आयुकर्म को छोड़कर ॐ सात कर्मों की दृढ़बन्धन से बद्धा प्रकृतियों को शिथिल करता है। उसे संवृत अनगार के समान समझना 卐 चाहिए। विशेषता यह है कि आयुकर्म को कदाचित् बाँधता है और कदाचित् नहीं बाँधता। शेष उसी
प्रकार समझना चाहिए; यावत् संसार को पार कर जाता है। 卐 [प्र. ] भगवन् ! इसका क्या कारण है कि-यावत्-संसार को पार कर जाता है ?
[उ. ] गौतम ! प्रासुक एषणीय आहारादि भोगने वाला श्रमणनिर्ग्रन्थ, अपने आत्मधर्म का उल्लंघन म नहीं करता। अपने आत्मधर्म का उल्लंघन न करता हुआ वह श्रमणनिर्ग्रन्थ पृथ्वीकाय के जीवों का
जीवन चाहता है, यावत्-त्रसकाय के जीवों का जीवन चाहता है और जिन जीवों का शरीर उसके
उपभोग में आता है, उनका भी वह जीवन चाहता है। इस कारण से हे गौतम ! वह यावत्-संसार को ॐ पार कर जाता है।
| भगवतीसूत्र (१)
(212)
Bhagavati Sutra (1)
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