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२३. [ १ ] तत्पश्चात् कालास्यवेषिपुत्र अनगार ने उन स्थविर भगवन्तों को वन्दना की, नमस्कार 5
किया और तब वह इस प्रकार बोले- 'हे भगवन् ! पहले मैंने (भगवान पार्श्वनाथ का) चातुर्याम - धर्म फ्र
स्वीकार किया है, अब मैं आपके पास प्रतिक्रमण सहित पंचमहाव्रतरूप धर्म स्वीकार करके विचरण
करना चाहता हूँ ।'
(स्थविर - ) 'हे देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख हो, वैसे करो । परन्तु ( इस शुभ कार्य में) विलम्ब ( प्रतिबन्ध) न करो।'
28. [1] After that Kaalasyaveshiputra paid homage and said
'Bhante! Earlier I got initiated in the four dimensional religion (of Bhagavan Parshva Naath), now I wish to accept the religion of five great vows and pratikraman (critical review or self-appraisal) from you and follow the codes.
(Sthavirs) “Beloved of gods ! Do as you please without any delay.”
[२] तए णं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे थेरे भगवंते वंदइ नमसइ, वंदित्ता, नमंसित्ता चाज्जामाओ धम्माओ पंचमहव्वइयं सपडिक्कमणं धम्मं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ ।
[ २ ] तदनन्तर कालास्यवेषिपुत्र अनगार ने स्थविर भगवन्तों को वन्दना की, नमस्कार किया और फिर चातुर्याम धर्म के स्थान पर प्रतिक्रमण सहित पंचमहाव्रतात्मक धर्म स्वीकार किया और विचरण करने लगे ।
[2] After that Kaalasyaveshiputra paid homage and obeisance and instead of the four dimensional religion accepted the religion of five great vows and pratikraman and commenced adhering to the codes.
२४. तए णं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता फ जस्साए कीरइ नग्गभावे मुण्डभावे अण्हाणयं अदंतधुवणयं अच्छत्तयं अणोवाहणयं भूमिसेज्जा फलगसेज्जा कट्ठसेज्जा केसलोओ बंभचेरवासो परघरपवेसो लद्धावलद्धी, उच्चावया गामकंटगा बावीसं परिसहोवसग्गा अहियासिज्जति तमट्ठ आराहेइ, आराहित्ता चरमेहिं उस्सास- नीसासेहिं सिद्धे बुद्धे मुक्के परिनिब्बुडे
दुक्खपणे ।
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२४. इसके पश्चात् कालास्यवेषिपुत्र अनगार ने बहुत वर्षों तक श्रमणपर्याय (साधुत्व) का पालन किया और जिस प्रयोजन से नग्नभाव, मुण्डभाव, अस्नान, अदन्तधावन, छत्रवर्जन, पैरों में जूते न पहनना, भूमिशयन, फलक (पट्टे) पर शय्या, काष्ठ पर शयन, केशलोच, ब्रह्मचर्यवास, भिक्षार्थ गृहस्थों क के घरों में प्रवेश, लाभ और अलाभ (सहना) अभीष्ट भिक्षा प्राप्त होने पर हर्षित न होना और भिक्षा न मिलने पर खिन्न न होना), अनुकूल और प्रतिकूल, इन्द्रियसमूह के लिए कण्टकसम चुभने वाले कठोर इत्यादि बाईस परीषहों को सहन करना, इन सब (साधनाओं) को स्वीकार किया, उस अभीष्ट की सम्यक रूप से आराधना की और अन्तिम उच्छ्वास - निःश्वास द्वारा सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुए और समस्त दुःखों से रहित हुए ।
शब्दादि प्रयोजन
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भगवतीसूत्र (१)
(208)
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Bhagavati Sutra (1)
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फ्र
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