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________________ तभी उन्होंने भगवान महावीर के पास जाकर सविनय अपनी जिज्ञासा प्रश्न के रूप में प्रस्तुत की। अतः संकलनकर्ता श्री सुधर्मा स्वामी गणधर ने उस प्रश्नोत्तर को उसी क्रम से, उसी रूप में ग्रथित कर लिया। ॥ अतः यह दोष नहीं, बल्कि प्रस्तुत आगम की प्रामाणिकता सिद्ध करता है। __इससे सम्बन्धित एक प्रश्न वृत्तिकार ने प्रस्तुत शास्त्र के प्रारम्भ में, जहाँ से प्रश्नों की शुरूआत 5 होती है; उठाया है कि प्रश्नकर्ता गणधर श्री इन्द्रभूति गौतम स्वयं द्वादशांगी के विज्ञाता हैं। श्रुत के समस्त विषयों के पारगामी हैं, सब प्रकार के संशयों से रहित हैं। इतना ही नहीं, वे सर्वाक्षरसन्निपाती हैं, मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यायज्ञान के धारक हैं, एक दृष्टि से सर्वज्ञ-तुल्य हैं, ऐसी स्थिति में 5 संशययुक्त सामान्यजन की भाँति उनका प्रश्न पूछना कहाँ तक युक्तिसंगत है? इसका समाधान स्वयं वृत्तिकार ही देते हैं-(१) गौतम स्वामी कितने ही अतिशययुक्त क्यों न हों, छद्मस्थ होने के नाते उनसे ॥ भूल होना असम्भव नहीं। (२) स्वयं जानते हुए भी, अपने ज्ञान की अविसंवादिता के लिए प्रश्न पूछ 卐 सकते हैं। (३) स्वयं जानते हुए भी अन्य अज्ञानिजनों के बोध के लिए प्रश्न पूछ सकते हैं। (४) शिष्यों - को अपने वचन में विश्वास जमाने के लिए भी प्रश्न पूछा जाना सम्भव है। अथवा (५) शास्त्ररचना की यही पद्धति या कथन प्रणाली है। इनमें से एक या अनेक कुछ भी कारण हों, गणधर गौतम का प्रश्न 5 पूछना असंगत नहीं कहा जा सकता। प्रस्तत आगम में अनेक प्रकरण कथा-शैली में लिखे गये हैं। जीवन-प्रसंगों. घटनाओं और रूपकों' के माध्यम से कठिन विषयों को सरस करके प्रस्तुत किया गया है। भगवान महावीर को जहाँ कहीं कठिन विषय को उदाहरण देकर समझाने की आवश्यकता महसूस हुई, वहाँ उन्होंने दैनिक जीवनधाराम दाहरण उठाकर उत्तर दिया है। किसी भी प्रश्न का उत्तर देने के साथ-साथ वे हेत का निर्देश 卐 भी किया करते थे। जहाँ एक ही प्रश्न के एक से अधिक उत्तर-प्रत्युत्तर होते, वहाँ वे प्रश्नकर्ता की दृष्टि और भावना को मद्देनजर रखकर तदनुरूप समाधान किया करते थे। जैसे-रोहक अनगार के प्रश्न म के उत्तर में स्वयं प्रतिप्रश्न करके भगवान ने प्रत्युत्तर दिया है। ___मुख्य रूप में यह आगम प्राकृत भाषा में या कहीं-कहीं शौरसेनी भाषा में सरल-सरस गद्य-शैली में लिखा हुआ है। प्रतिपाद्य विषय का संकलन करने की दृष्टि से प्रारम्भ में संग्रहणी गाथाओं के रूप के कहीं-कहीं पद्य भाग भी उपलब्ध होता है। कहीं पर स्वतंत्र रूप से प्रश्नोत्तरों का क्रम है, तो कहीं किसी घटना के पश्चात् प्रश्नोत्तरों का सिलसिला चला है। प्रस्तुत आगम में जहा पण्णवणाए एवं जहा जीवाभिगमे आदि पदों में द्वादशांगी से-पश्चात्वर्ती काल में रचित राजप्रश्नीय, औपपातिक, प्रज्ञापना, जीवाभिगम, प्रश्नव्याकरण एवं नन्दी सूत्र आदि (में वर्णित अमुक विषयों) का अवलोकन करने का निर्देश या उल्लेख देखकर इतिहासवेत्ता विद्वानों का यह अनुमान करना यथार्थ नहीं है कि यह आगम अन्य आगमों के बाद में रचा गया है। वस्तुतः जैनागमों को लिपिबद्ध करते समय देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण ने ग्रन्थ की अनावश्यक बृहद्ता कम करने तथा अन्य सूत्रों में वर्णित है विषयों की पुनरावृत्ति से बचने की दृष्टि से पूर्व लिखित आगमों का निर्देश अतिदेश किया है ऐसा अनुमान : है। आगम-लेखनकाल में सभी आगम क्रम से नहीं लिखे गये थे। जो आगम पहले लिखे जा चुके थे, उन आगमों में उस विषय का विस्तार से वर्णन पहले हो चुका था, अतः उन विषयों की पुनरावृत्ति न हो, 5 8听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 (15) i卐 卐 5555555555)))))) )))555555 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002902
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhyaprajnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2005
Total Pages662
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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