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२९. [प्र. ] भगवन् ! चौंसठ लाख असुरकुमारावासों में से एक-एक असुरकुमारावास में रहने वाले असुरकुमारों के कितने स्थिति-स्थान हैं ?
[उ. ] गौतम ! उनके स्थिति-स्थान असंख्यात हैं। यथा-जघन्य स्थिति, एक समय अधिक जघन्य स्थिति इत्यादि सब वर्णन नैरयिकों के समान जानना चाहिए। विशेषता यह है कि इनमें जहाँ सत्ताईस भंग आते हैं, वहाँ प्रतिलोम (विपरीत) समझना चाहिए। वे इस प्रकार हैं-समस्त असुरकुमार लोभोपयुक्त होते हैं, अथवा बहुत से लोभोपयुक्त और एक मायोपयुक्त होता है; अथवा बहुत से लोभोपयुक्त और मायोपयुक्त होते हैं, इत्यादि रूप (गम) से जानना चाहिए। इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक समझना चाहिए। विशेषता यह है कि संहनन, संस्थान, लेश्या आदि में भिन्नता जाननी चाहिए।
29. (Q.) Bhante ! What are said to be the counts of span of life (sthiti) of Asur Kumars living in each of the sixty four hundred thousand Asur Kumar abodes?
[Ans.) Gautam ! They have innumerable counts. They are like thisminimum life-span, one Samaya more than the minimum, two Samaya more than the minimum, ... and so on as stated about infernal beings. The only difference is that where the 27 alternatives (of inclinations) have been described the order should be reversed (greed, deceit, conceit and anger), such as-all Asur Kumars have inclination of greed, or many have inclination of greed and one has that of deceit, or many have
nation of greed and many have that of deceit, and so on. The same is applicable to all abodes up to Stanit Kumars. The differences are in samhanan, samsthan and leshya. एकेन्द्रियों का स्थिति आदि दस द्वार ATTRIBUTES OF EKENDRIYAS
३०. [प्र. ] असंखेज्जेसु णं भंते ! पुढविकाइयावास सतसहसेस्सु एगमेगंसि पुढविकाइयावासंसि पुढविक्काइयाणं केवतिया ठितिठाणा पण्णत्ता ?
[उ. ] गोयमा ! असंखेज्जा ठितिठाणा पण्णत्ता। तं जहा-जहनिया ठिई जाव तप्पाउगुक्कोसिया ठिती।
३०. [प्र. ] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों के असंख्यात लाख आवासों में से एक-एक आवास में बसने वाले पृथ्वीकायिकों के कितने स्थिति-स्थान हैं ?
[उ. ] गौतम ! उनके असंख्येय स्थिति-स्थान हैं। यथा-उनकी जघन्य स्थिति, एक समय अधिक जघन्य स्थिति, इत्यादि यावत् उनके योग्य उत्कृष्ट स्थिति।
30. (Q.) Bhante ! What are said to be the counts of span of life (sthiti) of Prithvikayik jivas (earth-bodied beings) living in each of the innumerable hundred thousand abodes of earth-bodied beings?
| प्रथम शतक : पंचम उद्देशक
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First Shatak : Fifth Lesson 5555555555555555555555
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