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$i (Ans.] Gautam ! Potency originates from body (sharira).
Q.5] Bhante ! What is the origin of body (sharira) ?
[Ans.] Gautam ! Body originates from soul (jiva). This happens on account of inclination to rise (utthaan), action (karma), strength (bal), potency (virya) and self-exertion (purushakar-parakram).
विवेचन : कर्मबन्ध के कारण-यद्यपि कर्मबन्ध में पाँच मुख्य कारण हैं, तथापि यहाँ प्रमाद और योग दो कारण बताने का आशय यह है कि मिथ्यात्व, अविरति और कषाय का अन्तर्भाव प्रमाद में हो जाता है। यद्यपि
सिद्धान्तानुसार छठे से आगे के गुणस्थानों में प्रमाद नहीं होता, फिर भी जहाँ (दसवें गुणस्थान) तक कषाय है, ॐ वहाँ तक सूक्ष्म प्रमाद माना जाता है, स्थूल प्रमाद नहीं। इसलिए वहाँ तक प्रायः मोहनीयकर्म का बन्ध होता है। 卐 दसवें गुणस्थान में कषाय अत्यल्प (सूक्ष्म) होने से मोहकर्म का बन्ध नहीं होता है।
उत्थान आदि का स्वरूप-उठना 'उत्थान' है। जीव की चेष्टाविशेष 'कर्म'। शारीरिक प्राण 'बल'। जीव का के उत्साह या शक्ति 'वीर्य' तथा पुरुष की स्वाभिमानपूर्वक क्रिया 'पुरुषकार' है और शत्रु को पराजित करना है 卐 'पराक्रम' है। (वृत्ति, पत्रांक ५६-५७)
Elaboration-Although there are five main causes of karmic bondage, here only two, pramad (stupor) and yoga (association), have been 5 mentioned for the simple reason that the other three, mithyatva
(unrighteousness), avirati (non-restraint) and passions, are extensions of pramad only. Doctrinally pramad does not extend beyond the sixth
Gunasthan (level of spiritual ascendance), however, it is believed that as 卐 long as passions exist (up to tenth Gunasthan) traces of pramad exist,
which is in subtle form and not gross. That is why up to that point there is generally a bondage of mohaniya karma. At the tenth Gunasthan there is no fresh bondage of mohaniya karma because here passions are of very minute intensity. Besides the eight categories of pramad mentioned in scriptures there are many more including the said three.
Utthaan etc.--utthaan-inclination to rise, karma-specific actions of beings, bal--physical strength, virya---inner potency or energy,
purushakar-action with self-awareness, parakram-to exert to win 41 over or accomplish. (Vritti, leaves 56-57) ॐ कांक्षामोहनीय की उदीरणा, गर्दा आदि FRUITION OF KANKSHA MOHANIYA
१०. [प्र. १] से णूणं भंते ! अप्पणा चेव उदीरेइ, अप्पणा चेव गरहइ, अप्पणा चेव संवरेइ ? [उ. ] हंता, गोयमा ! अप्पणा चेव तं चेव उच्चारेयव्वं ३।
१०. [प्र. १] भगवन् ! क्या जीव अपने आप से ही उस (कांक्षामोहनीय कर्म) की उदीरणा करता 卐 है, अपने आप से ही उसकी गर्दा करता है और अपने आप से ही उसका संवर करता है ?
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| भगवतीसूत्र (१)
(94)
Bhagavati Sutra (1)
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