________________
फफफफफफफफफफफफफफ
5
卐
卐
ததததததததததததத*தமிழ*************தமிVVVS
5 विवेचन : कांक्षामोहनीय- जो कर्म जीव को मोहित या भ्रान्त बनाता है, उसे मोहनीय कर्म कहते हैं। मोहनीय कर्म के दो भेद हैं-चारित्रमोहनीय और दर्शनमोहनीय । यहाँ चारित्रमोहनीय कर्म के विषय में प्रश्न नहीं है। 5 इसीलिए मोहनीय शब्द के साथ 'कांक्षा' शब्द जोड़ा गया है। कांक्षामोहनीय-दर्शनमोहनीय का ही भेद है। कांक्षा का अर्थ है - स्व- दर्शन के प्रति अरुचि तथा अन्य दर्शनों को स्वीकार करने की इच्छा करना। संशयमोहनीय, फ्र विचिकित्सामोहनीय, परपाखण्डप्रशंसामोहनीय आदि कांक्षामोहनीय के अन्तर्गत भेद हैं।
कांक्षामोहनीय का ग्रहण कैसे ? -कर्म या कार्य चार प्रकार से होता है, उदाहरणार्थ - एक मनुष्य अपने शरीर के एकदेश- हाथ से वस्त्र का एक भाग ग्रहण करता है, यह एकदेश से एकदेश का ग्रहण करना है। इसी प्रकार हाथ से सारे वस्त्र का ग्रहण किया तो यह एकदेश से सर्व का ग्रहण करना है; यदि समस्त शरीर से वस्त्र के एक भाग को ग्रहण किया तो सर्व से एकदेश का ग्रहण हुआ; सारे शरीर से सारे वस्त्र को ग्रहण किया तो सर्व से सर्व का ग्रहण करना हुआ। प्रस्तुत प्रकरण में देश का अर्थ है-आत्मा का एकदेश और एक समय में ग्रहण किये वाले कर्म का एकदेश। अगर आत्मा के एकदेश से कर्म का एकदेश किया तो यह देश से एकदेश की क्रिया फ की। अगर आत्मा के एकदेश से सर्व कर्म किया, तो यह देश से सर्व की क्रिया हुई । सम्पूर्ण आत्मा से कर्म का 5 एकदेश किया, तो सर्व से देश की क्रिया हुई और सम्पूर्ण आत्मा 'समग्र कर्म किया तो सर्व से सर्व की क्रिया हुई |कांक्षामोहनीय कर्म सर्व से सर्वकृत है, अर्थात् समस्त आत्मप्रदेशों से समस्त कांक्षामोहनीय कर्म किया हुआ फ है। पूर्वोक्त चौभंगी में से यहाँ चौथा भंग ही ग्रहण किया गया है।
卐
जाने
卐
卐
卐
'चित' आदि पदों का स्वरूप - कर्म - पुद्गलों का ग्रहण करना 'चय' है, और बार-बार चय करना 'उपचय'
है। अथवा अबाधाकाल समाप्त होने के पश्चात् गृहीत कर्म - पुद्गलों को वेदन करने के लिए निषेचन (कर्मदलिकों का वर्गीकरण) करना, उदयावलिका में स्थापित करना 'उपचय' कहा जाता है। 'उदीरणा', 'वेदना' 5 और 'निर्जरा' का स्वरूप पहले बताया चुका है। उदीरणा आदि चिरकाल तक नहीं रहते, अतएव उनमें सामान्यकाल नहीं बताया गया है। इसलिए उदीरणा आदि में सिर्फ तीन प्रकार का काल बताया है।
卐
फ्र
शंका आदि पदों का स्वरूप- सर्वज्ञभाषित तत्त्वों में सन्देह करना शंका है। अन्यदर्शन को ग्रहण करने की इच्छा करना कांक्षा है। भ्रान्ति या अनिश्चितता व ब्रह्मचर्य आदि आचार- पालन के फल के विषय में संशय करना विचिकित्सा है। बुद्धि में द्वैधीभाव (बुद्धिभेद) उत्पन्न होना भेदसमापन्नता है, जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्रतिपादित तत्त्व विपरीत रूप से समझना कलुषसमापन्नता है।
कांक्षामोहनीय कर्म को हटाने का प्रबल कारण- छद्मस्थतावश जब कभी किसी तत्त्व या जिनप्ररूपित तथ्य के विषय में शंका आदि उपस्थित हो, तब 'तमेव सच्चं णीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं - इसी सूत्र को हृदयंगम कर ले तो व्यक्ति कांक्षामोहनीय कर्म से बच सकता है और जिनाज्ञाराधक हो सकता है। (वृत्ति, पत्रांक ५२ )
Elaboration-Kanksha-mohaniya karmas-The karma that beguiles and deludes a being is called mohaniya karma. It is of two typesChaaritra mohaniya (conduct deluding) and Darshan mohaniya (perception/faith deluding). As the inquiry here is not about conduct deluding karma, a prefix kanksha has been added with mohaniya. फ्र Kanksha mohaniya is a category of darshan mohaniya karma फ्र (perception deluding karma). Kanksha means dislike for one's own faith
फ्र
फ्र
and desire to accept other faiths. Samshaya (doubt ) mohaniya, vichikitsa 5
5
Bhagavati Sutra (1)
卐
5
भगवतीसूत्र (१)
(86)
கமிதிததமி***************************மிக
Jain Education International
卐
5
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org