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देवताओं ने एक रमणीय उद्यान में भव्य महल बनाया। पार्श्वकुमार महल में ठहरे। प्रातः दूत को बुलाकर कहा-"यवनराज के पास जाकर हमारा सन्देश दो।"
दूत यवनराज के पास आया। नमस्कार कर बोला-"महाराज प्रसेनजित के मित्र महाराज अश्वसेन के पुत्र पार्श्वकुमार का मैं दूत हूँ।"
यवनराज ने घूरकर देखा-"किसलिए आये हो ? युद्ध से डरकर समर्पण करने?"
दूत (हँसकर)-"हे यवनराज ! जब तक जंगल में केसरी सिंह आकर नहीं हुँकारता तब तक ही क्षुद्र प्राणी उछल-कूद मचाते हैं। आपको पता होगा, पार्श्वकुमार के समक्ष शक्रेन्द्र स्वयं आकर नमस्कार करता है। उनकी कृपा दृष्टि की इच्छा करता है। पार्श्वकुमार अत्यन्त दयालु हैं। खून की एक बूंद भी बहाना नहीं चाहते। शत्रु-मित्र सबके प्रति उनके मन में करुणा भाव हैं।"
यवनराज-"दूत ! व्यर्थ की बड़ाई मत करो। दया, करुणा की बात तो कायर आदमी करते हैं। तुम्हारा स्वामी वीर है तो कहो युद्धभूमि में आ जाए।"
दूत-"युद्धभूमि में तो आ ही गये हैं। उनके हाथ का एक अमोघ बाण ही तुम्हारी सेना में प्रलय मचा सकता है। किन्तु तुम्हें एक अवसर दिया जाता है, यदि अपनी कुशल चाहते
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क्षमावतार भगवान पार्श्वनाथ Jain Education International
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